विद्याब्धि छन्द
(तर्ज- हम लाये हैं तूफान से…..1)
श्री विश्वसेन भूप बाल, लोक भाल हो,
वाराणसी में जन्म लिया, अहि कृपाल हो ।
तेईसवें जिन ! आपने, मन अक्ष जीत के,
कैवल्य ज्ञान पा लिया, उपसर्ग जीत के ॥
हे पार्श्वनाथ! आपसे, है ज्ञान उजाला,
भव्यों ने मोक्षमार्ग को, तुमसे है सम्हाला।
कर्मों को नाशने चरण की, अर्चना करूँ,
विनयादि गुण की प्राप्ति हेतु, वन्दना करूँ ॥
ओं ह्रीं तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् इति आह्वाननम् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम् !
दृग मोह के अभाव से, सम्यक्त्व मिल गया,
चारित्र मोह नश गया, चारित्र खिल गया।
जल से जिनेन्द्र पूज के, जन्मों के दुख हरूँ,
उपसर्गजयी पार्श्वनाथ का, यजन करूँ ॥
ओं ह्रीं तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं ।
ज्ञानावरण को नाश के, कैवल्य पा लिया,
भव्यों को मोक्ष मार्ग का, उपदेश दे दिया।
चन्दन से आप्त पूज के, भव ताप को हरूँ,
उपसर्गजयी पार्श्वनाथ का, यजन करूँ
ओं ह्रीं तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं ।
दृग आवरण अभाव से, दृग पूर्ण खिल गया,
जिसमें अनंत नभ त्रिलोक, सब झलक गया।
अक्षत से आप्त पूज के, अक्षय सुगुण धरूँ
उपसर्गजयी पार्श्वनाथ का, यजन करूँ॥
ओं ह्रीं तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान्।
विधि अन्तराय नाश के, पन लब्धियाँ मिलीं,
जीवों को अभयदान आदि, सिद्धियाँ फलीं।
मन का सुमन चढ़ा के, काम वासना हरूँ,
उपसर्गजयी पार्श्वनाथ का, यजन करूँ
ओं ह्रीं तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं ।
साता असात कर्म के विनाश से मिला,
सुख अव्याबाध आप में अबाध हो खिला।
इच्छा निरोध चरु चढ़ा के, भूख को हरूँ,
उपसर्गजयी पार्श्वनाथ का, यजन करूँ ॥
ओं ह्रीं तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं
चउ आयु के बंधन से मुक्त, मोक्ष में बसे,
अवगाहना को प्राप्त कर, निजात्म में लसे।
सुज्ञान दीप ज्योति से, अज्ञानतम हरूँ,
उपसर्गजयी पार्श्वनाथ का, यजन करूँ
ओं ह्रीं तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं।
देहादि नाम कर्म नाश, ज्ञानमय हुये,
सूक्ष्मत्व सुगुण पा गये, चैतन्यमय हुये।
अष्टांग दृष्टि धूप से, ज्ञानादि यश वरूँ,
उपसर्गजयी पार्श्वनाथ का, यजन करूँ
ओं ह्रीं तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं ।
विधि उच्च नीच गोत्र नाश, कुल विमुक्त हो,
अगुरुलघु सुगुण मिला, संसार मुक्त हो ।
शुभ भाव के फलों से पूज, मोक्ष को वरूँ,
उपसर्गजयी पार्श्वनाथ का, यजन करूँ
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय महामोक्षफलप्राप्तये फलं।
आठों करम के बन्ध से, विमुक्त हो गये,
सम्यक्त्व आदि सद्गुणों से युक्त हो गये।
अर्थों से आपको भजूँ, अनर्घ पद धरूँ,
उपसर्गजयी पार्श्वनाथ का, यजन करूँ॥
ओं ह्रीं तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्धं निर्व.।
सखी छन्द
प्राणत विमान से आये, वामा के गर्भ सुहाये।
वैशाख दोज अलि आयी, गर्भोत्सव मंगल लायी॥
ओं ह्रीं वैशाखकृष्णद्वितीयायां गर्भकल्याणकप्राप्त श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ ।
पौषी एकादशि काली, जन्मोत्सव की खुशहाली।
प्रभु ने दश अतिशय पाये, हरि सुरगिरि नहुन कराये॥
ओं ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां जन्मकल्याणकप्राप्त श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्धं ।
पौषी एकादशि काली, भव विरक्त हो दीक्षा ली।
लौकान्तिक सुर गुण गाते, प्रभु कचलुंचन कर भाते॥
ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां तपः कल्याणकप्राप्त श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घं ।
कलि चैत्र चतुर्थी आयी, सर्वज्ञ दशा को लायी ।
जिनवर उपदेश सुनाते, भविजन के मन हर्षाते ॥
ओं ह्रीं चैत्रकृष्णचतुर्थ्यां ज्ञानकल्याणकप्राप्त श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्ध ।
सित सातें सावन आयी, पारस शिव लक्ष्मी पायी।
सम्मेदाचल यश पाता, जग भर से पूजा जाता 11
ओं ह्रीं श्रावणशुक्लसप्तम्यां मोक्षकल्याणकप्राप्त श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्थ ।
जयमाला (यशोगान)
दोहा
श्याम वर्ण तनु हाथ नव, पार्श्व देह उत्तुंग।
अहि लक्षण पद में लसे,दस भव समता संग॥
(विद्याब्धि छन्द)
श्रीपार्श्वनाथ शान्ति के, आदर्श बन गये,
भव भव का क्रोध शत्रु जीत, सिद्ध बन गये।
प्रभु क्रोध अग्नि पे, क्षमा का नीर बहाते,
अपकारी कमठ भ्रात पे, न क्रोध जगाते ॥ 1॥
निज पर की शान्ति छीनता, ऐसा ये क्रोध है,
क्रोधी स्वपर को घातता, रहता न बोध है।
छह भव प्रभु ने कमठ के, उपसर्ग को सहा,
दस भव के बीच चार बार, स्वर्ग को लहा ॥ 2 ॥
बेचारा कमठ कर्म का मारा स्वयं रहा,
कई भव में वैर भाव धार, मारता रहा।
हिंसा के पाप से नरक के, दुःख को सहा,
प्रभु पार्श्वनाथ ने क्षमा से, मोक्ष को लहा ॥ ३॥
मरुभूति कमठ भाई थे, सगे कमठ बड़े,
मरुभूति की पत्नि पे नजर डालते बुरे ।
इस बात से राजा ने दिया, देश निकाला,
वन में कमठ को लेने गया, भाई विचारा ॥ 4 ॥
तब क्रोध में मरुभूति पे, पत्थर पटक दिया,
क्रोधान्ध कमठ का बुझा था, ज्ञान का दिया।
मरुभूति मर के वन में, वज्रघोष गज बना,
इस बार कमठ सर्प बन के, मारता फणा ॥ 5 ॥
सल्लेखना मरण से, हस्ति स्वर्ग में गया,
बदले का भाव धार कमठ, नर्क में गया।
मरुभूति स्वर्ग सौख्य भोग, मनुज बन गये,
नृप रश्मिवेग नाम पा, तपों को धर लिये ॥ 6 ॥
वह कमठ नरक से निकल, अजगर बना महाँ,
तप करते रश्मिवेग को, निगल गया यहाँ।
मुनि रश्मिवेग कर समाधि, स्वर्ग को गये,
अजगर नरक में पाप का फल, भोगता अये ! ॥ 7 ॥
अजगर नरक से आ के यहाँ, भील बन गया,
सुर स्वर्ग से आ वज्रनाभि, चक्रि बन गया।
चक्रेश साधु साधना में लीन थे जभी,
उस भील ने अगनी लगा, जला दिया तभी ॥ 8॥
चक्रेश साध के समाधि, स्वर्ग सुख लहे,
वह भील पाप के फलों से, नरक दुख सहे।
चक्रेश स्वर्ग से यहाँ, आनन्द नृप बना,
वह भील नरक से निकल के, क्रूर सिंह बना ॥ १॥
आनन्द भावनायें भा के, ध्यान में गये,
तब सिंह ने आक्रमण किया, मुनि स्वर्ग को गये।
सुर स्वर्ग से आ के बने हैं, पार्श्व प्रभु महाँ।
वह सिंह नरक से आ बना, महीपाल नृप यहाँ ॥ 10 ॥
महिपाल अग्नि तप करे, तब पार्श्व ने कहा,
लकड़ी में नाग जल रहे, क्या ज्ञान ना लहा।
साधु ने फाड़ी लकड़ी तो, अहि तड़फते मिले,
तब जलते नाग को दिये, उपदेश प्रभु भले ॥ 11 ॥
वह नाग युगल पद्मावती, अहिपती हुये,
जातिस्मरण से पार्श्व ने, व्रत तप ग्रहण किये।
महिपाल देव बन गया, ज्योतिष विमान में,
तब उसने पार्श्व को लखा, तप करते ध्यान में ॥ 12 ॥
उस सुर कमठ ने आप पे, उपसर्ग ढा दिया,
धरणेन्द्र ने उपसर्ग को, फण से हटा दिया।
पद्मावती भी वज्र के, त्रय छत्र लगाती,
पारस प्रभु की सेवा करके भाग्य मनाती ॥ 13 ॥
इतने में पार्श्वनाथ जी, सर्वज्ञ बन गये,
चारों निकाय देव, जिन शरण में आ गये।
परनारी कुदृष्टि के दुख को, कमठ ने सहा,
मरुभूति ने समता से सर्व सौख्य को लहा ॥ 14॥
कैवल्य के अतिशय से, कमठ ने शरण गही,
कहता मुझे क्षमा करो, प्रभु हो क्षमा मही ।
उपदेश दे प्रभु लीन हुये, आत्म ध्यान में,
सम्मेद शिखर से गये, प्रभु मोक्ष धाम में ॥ 15 ॥
ओं ह्रीं तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय पूर्णाधं निर्व. स्वाहा।
दोहा
पार्श्वनाथ आदर्श को, धरो भव्य हितकार।
विद्यासागर सूरि से, है मृदुमति उद्धार
॥ इति शुभम् भूयात् ॥
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Note
New Parasnath Jin Pooja