पूर्वभवोमां पाम्यो सन्मति ने,

 हुं पहोंच्यो छुं मानवगतिए, 

सन्मति जे पाम्यो एनुं कारण सत्संगरति, 

एना हर्षे दूरे थया संसारना रति-अरति…(१)

 

विरतिरुचि आ भवमां, पण मांगु हुं अंतसुधी… 

विरतिरुचि आ भवथी, मने लई जाशे मोक्षसुधी…(२)

 

संस्कारो, आ जन्मोनां, जेणे छे रमाड्यूं भवोभव, 

कर्माना, आ कादवथी, शुध्द करे आ अनुभव,

 संयम छे सरनामु, ज्यां सुखनी वृध्दी, 

संयम ते मळवानुं, मुकी गुरुचरणे बुध्दी, 

विरतिरुचि…..(३)

 

विरति छे सम्यक् अर्चनम्, मैत्रीभावनुं स्पर्शनम्… 

विरति छे सम्यक् अर्चनम्, सर्वस्वंनु समर्पणम्…(४)

 

 संबंधोने त्यागीने, हवे सिध्दिपथ पर छे नजर, 

महाव्रतना पालनमां हुं, राच्यो रहीश हर प्रहर,

 संयम छे गमवानुं, देव-गुरु अनुग्रहथी,

 संयम छे घुटवानुं, जेथी थाशे प्रगती, 

विरतिरुचि…(५)

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