ना हीरे, ना मोती, ना कोई शृंगार, 

फिर भी वो सुंदर है, ऋषभकुमार, 

ये तीरथ है शाश्वत, अनादि, अनंता, 

सेवा स्वीकारो हे आदि जिणंदा….

 

क्या वो सम्राट है, या वो ही है प्रभो!

 कभी राजा दिखे, कभी आदि श्रमण,

 कभी योगदृष्टा, जटाधारी योगी, 

कभी वो शीखाते, कला-कर्मयोगी,

 वो दाता, विधाता और अवधूती संता, 

सेवा स्वीकारो हे आदि जिणंदा… ॥१॥

 

यहां की धरा और ये बारीश भी धन्या,

 यहां के फूलोकी ये खूश्बु अनन्या,

 ये पर्वत के कण-कण में, मरुदेवा नंदा, 

सेवा स्वीकारो हे आदि जिणंदा… ॥२॥

 

ना शत्रुका भय है शत्रुंजय सहारे, 

 ये मेरा है जीवन बस, 

तूं ही सँवारे,

 ये प्राची प्रतीची में,

 सूरज और चंदा, 

सेवा स्वीकारो हे आदि जिणंदा… ||3||

 

ये परवत शिखर पर,

 है तेरा बसेरा,

 तुजसे ही होता है, 

मेरा संवेरा, 

ये आंखे नमीं और होठो पे लाली, 

मैं “उदयरतन” हुं, बडा पुण्यशाली, 

वो रायण की छाया और चरणा अरविंदा,

सेवा स्वीकारो हे आदि जिणंदा… ॥४॥

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