Jain Akshaya Tritiya – Jain Story in Hindi & English

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जैन अक्षय तृतीया कथा/स्टोरी हिंदी

जगद्गुरू भगवान ऋषभदेव ने दीक्षा लेकर छह महीने का योग धारण कर लिया था। जब छह महीने पूर्ण हो गये, तब वे प्रभु मुनियों की चर्याविधि बतलाने के लिये आहारार्थ निकले। यद्यपि भगवान को आहार की आवश्यकता नहीं थी, फिर भी मोक्षमार्ग को प्रगट करने के लिये पृथ्वीतल पर विचरण करने लगे।

उस समय लोग दिगम्बर मुनियों के आहार की विधि को नहीं जानते थे । अतः कोई-कोई भगवान के पास आकर उन्हें प्रणाम करते और उनके पीछे-पीछे चलने लगते, कोई बहुमूल्य रत्न लाकर भगवान के सामने रखते और ग्रहण करने की प्रार्थना करते कि हे देव! प्रसन्न होइये और स्नान करके भोजन कीजिये । कोई हाथी, घोड़ा, पालकी आदि वाहन लेकर आते और भेंट करते। कितने ही लोग रूप-यौवन सम्पन्न कन्याओं को लाते और कहते कि प्रभो! आप | इन्हें स्वीकार कीजिये । आचार्य कहते हैं कि इन लोगों की मूर्ख चेष्टा को धिक्कार हो, जो ऐसी-ऐसी चेष्टा कर रहे थे।

इस प्रकार जगत में आश्चर्यकारी गूढ़चर्या से भ्रमण करते हुए भगवान के छह मास और व्यतीत हो गये। अनन्तर भगवान ऋषभदेव हस्तिनापुर पधारे। उस समय वहाँ के राजा सोमप्रभ कुरूवंश के शिखामणि थे और उनके भाई श्रेयांस कुमार थे। श्रेयांस कुमार ने उसी रात्रि के पिछले प्रहर में सुमेरू पर्वत, कल्पवृक्ष, सिंह, बैल, सूर्य – चन्द्र, समुद्र और व्यंतर देवों की मूर्ति, ऐसे सात स्वप्न देखे थे। प्रातः पुरोहित ने इन स्वप्नों का फल यही बतलाया था कि जिनका सुमेरू पर्वत पर अभिषेक हुआ है, ऐसे कोई देव आज आपके घर पर आयेंगे।

उसी समय नगर में भगवान के दर्शनों के लिए दौड़ते हुए जनों से बहुत बड़ा कोलाहल व्याप्त हो गया। इधर सिद्धार्थ के द्वारपाल ने प्रभु के आगमन की सूचना दी। दोनों भाई उठ खड़े हुए और बाहर आये। | भगवान को देखते ही गद्गद हो उन्हें नमस्कार किया और उनकी तीन प्रदक्षिणायें दीं ।

तत्क्षण ही राजा श्रेयांस को अपने पूर्वभवों का स्मरण हो। आया और आहारदान देने की सारी विधि याद आ गयी। जब वङ्काजंघ और श्रीमती ने वन में चारण मुनि को आहार दान दिया था। उस समय का दृश्य ज्यों का त्यों उपस्थित हो गया। राजा वङ्काजंघ का जीव ही भगवान ऋषभदेव हुए हैं और रानी श्रीमती के जीव ही राजा श्रेयांस हुए हैं ।

वैशाख सुदी तृतीया का था इसलिये तब से लेकर आज तक भी वह दिन पवित्र “अक्षय तृतीया ” के नाम से पृथ्वीतल पर सर्वत्र विख्यात है और महान् पर्व के रूप में मनाया जाता है । उस समय राजा श्रेयांस ‘दान तीर्थ के प्रवर्तक’ कहलाये थे।
देवों ने भी आश्चर्य के साथ श्रेयांस कुमार की बड़ी भारी पूजा की थी तथा भरत चक्रवर्ती ने आकर हर्ष से गद्गद हो पूछा था कि हे कुरुवंश शिखामणे! तुमने यह आहारदान की विधि कैसे जानी?

तब राजा श्रेयांस ने अपने जातिस्मरण की बात कहना शुरू की। हे भरत सम्राट्! इस भव से आठवें भव पूर्व की बात है। जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह के पुष्कलावती देश में एक उत्पलखेट नाम का नगर है। उसके राजा वङ्काजंघ अपनी श्रीमती रानी के साथ ससुराल जाते समय मार्ग में वन में पड़ाव डालकर ठहर गये। उस समय अकस्मात् चारणऋद्धि के धारक दो मुनिराज वहाँ आहार हेतु आ गये। उनका वन में ही आहार ग्रहण करने का वृत्तिपरिसंख्यान व्रत था।

राजा ने उन्हें देखते ही अत्यर्थ आदर के साथ रानी श्रीमती सहित खड़े होकर उनका पड़गाहन किया पुनः उन्हें उँचे आसन पर बिठाया। उनके चरण- कमलों का प्रक्षालन किया, पूजा की, नमस्कार किया और मन, वचन, काय तथा आहार को शुद्ध निवेदन करके श्रद्धा आदि गुणों से समन्वित राजा ने रानी सहित उन दोनों मुनियों को विधिपूर्वक आहार दिया। उस समय देवों ने विभोर होकर रत्नों को बरसाया और पुष्पों की वर्षा करने लगे, सुगन्धित मन्द पवन चलाई, दुन्दुभि बाजे बजाये और “अहो दान, अहो दान” ऐसी प्रशंसात्मक ध्वनि करने लगे ।

अनन्तर आहार के पश्चात् राजा ने पुनः उनकी पूजा और वन्दना की । अनन्तर कंचुकी के द्वारा अनन्तर कंचुकी के द्वारा राजा को पता चला कि ये दोनों महामुनि आपके ही अन्तिम युगलिया पुत्र हैं। इनके दमधर और सागरसेन ये नाम हैं। मतलब रानी श्रीमती के अठानवें पुत्र हुए थे। | उन सभी ने अपने बाबा के साथ जैनेश्वरी दीक्षा ले ली थी। उन्हीं में से ये अन्तिम हैं । इतना सुनते ही राजा को अतिशय प्रेम उमड़ पड़ा। |

भक्ति में विभोर हो राजा ने उनके चरण सानिध्य में बैठकर अपने व श्रीमती के पूर्वभव पूछे । पुनः पूछने लगे कि हे भगवन्! ये हमारे मन्त्री, | सेनापति, पुरोहित और सेठजी अतिशय भक्ति से आपका आहार देख रहे थे, इन पर मुझे अत्यधिक स्नेह है एवं ये जो सिंह, सूकर, नकुल और बन्दर बड़ी ही उत्कण्ठा से शान्तचित् होकर आपका आहार देख रहे थे, ये भी कोई भव्य जीव हैं। कृपया इन सबके पूर्वभवों को भी बतलाकर सभी को कृतार्थ कीजिये तथा गुरूदेव ने क्रम-क्रम से सभी के भव-भवान्तर सुना दिये। अनन्तर राजा ने पुनः निवेदन किया कि आगे हम लोगों के अभी तक इस संसार में कितने भव और शेष हैं? मुनिराज ने कहा—राजन्! आप सभी निकट भव हैं।

आप तो इससे आठवें भव में युग के आदि विधाता तीर्थंकर ऋषभदेव होवेंगे, धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति चलायेंगे तथा माता श्रीमती का जीव राजा श्रेयांस होकर दान तीर्थ का प्रवर्तक होगा । आपके ये मतिवर मन्त्री उस भव में आपके प्रथम पुत्र सम्राट् भरत चक्रवर्ती होवेंगे जिनके नाम से यह देश भारत इस सार्थक नाम से सनाथ होगा। ये आनन्द पुरोहित बाहुबली नाम के कामदेव पदवीधारी महापराक्रमी पुत्र होवेंगे। सेनापति का जीव ऋषभसेन होगा जो आपका प्रथम गणधर होगा।

ये धनमित्र सेठ अनन्तविजय नामक पुत्र होंगे तथा ये सिंह, सुअर, बन्दर और नकुल के जीव भी अभी दान की अनुमोदना के प्रभाव से अतिशय पुण्य संचित कर चुके हैं। ये मरकर उत्तम भोगभूमि में मनुष्य में होकर पुनः कालान्तर में आपकी ऋषभदेव पर्याय में आपके ही अनन्तवीर्य, अच्युत, वीर और सुवीर नाम के पुत्र होंगे अर्थात् ये आठों जीव आपके ही साथ उत्तम देव व मनुष्य के सुखों को भोगकर पुनः तीर्थंकर पर्याय में आपके ही पुत्र होकर उसी भव से मोक्ष को प्राप्त करेंगे।

इस प्रकार से राजा श्रेयांस के मुख से सर्व अतीत वृत्तांत सुनकर भरत चक्रवर्ती अत्यर्थ प्रमोद को प्राप्त हुये और बहुत से रत्नों, आभूषणों द्वारा उनका आदर सम्मान करके तथा उन्हें “दानतीर्थ प्रवर्तक” उपाधि से विभूषित करके वे अपनी अयोध्या में वापस आ गये ।

प्रिय बहनों! एक बार के आहारदान के प्रभाव से उन युगल दम्पत्ति राजा वङ्काजंघ और रानी श्रीमती ने कितना उत्कृष्ट फल प्राप्त किया तथा उस दान को देखकर मात्र अनुमोदना करने वाले उन मन्त्री, सेनापति, पुरोहित तथा सेठ ने तथा चारों पशुओं ने उन्हीं के सदृश कैसा महान् अचिन्त्य फल प्राप्त कर लिया । अहो ! दान की महिमा अचिन्त्य ही है। आज के युग में भी जो अपने को महामुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका आदि साधुवर्ग दिखते हैं उनके प्रति असीम भक्ति रखकर पूजादान भक्ति रखकर पूजादान आदि करके अपने मनुष्य जीवन को सफल कर लेना चाहिये। कहा भी है-

भुक्तिमात्रप्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनां ।
ते सन्तः सन्त्वसन्तो वा गृही दानेन शुद्धयति १ ।।

अर्थ-भोजन मात्र प्रदान करने के लिए तपस्वियों की क्या परीक्षा करना? वे सद्गुणों से युक्त हों या न हों किन्तु गृहस्थ तो दान से शुद्ध हो ही | जायेगा । गुरुओं की भक्ति दानादि का क्या फल है सो देखिये-

उच्चैर्गोत्रं प्रणतेर्भोगो दानादुपासनात्पूजा।
भत्तेः सुन्दररूपं स्तवनात्कीर्तिस्तपोनिधिषु२ ।।

अर्थ-साधुओं को नमस्कार करने से उच्च गोत्र प्राप्त होता है । उनको दान देने से भोग मिलते हैं। उनकी उपासना से पूजा प्राप्त होती है। उनकी भक्ति से सुन्दर रूप और उनकी स्तुति करने से कीर्ति होती है

Jain Akshaya Tritiya Katha/Story in Hindi

Jagadguru Lord Rishabhdev had taken initiation and practiced yoga for six months. When the six months were over, he went out for a meal to tell about the rituals of the sages. Although God did not need food, yet he started roaming on the earth to reveal the path of salvation.

At that time people did not know the diet of Digambara monks. Therefore, some people would come to God and pay obeisance to him and start following him, bring some precious gem and place it in front of God and pray to him to accept it, O God! Be happy and take bath and eat.

Some would bring vehicles like elephant, horse, palanquin etc. and present them. How many people would bring beautiful and youthful girls and say, Lord! you | Accept these. Acharya says that shame on the foolish efforts of these people who were making such attempts.

In this way, six more months of the Lord’s life were spent traveling the world with surprising mystery. Later Lord Rishabhdev came to Hastinapur. At that time the king there was Somprabha Shikhamani of Kuruvansh and his brother was Shreyansh Kumar.In the last quarter of the same night, Shreyansh Kumar had seen seven such dreams – Sumeru mountain, Kalpavriksha, lion, bull, sun-moon, sea and the idols of Vyantar gods. In the morning, the priest had told the result of these dreams that some such deity who has been consecrated on Mount Sumeru, will come to your house today.

At the same time, there was a huge noise in the city due to people running to see the Lord. Here Siddhartha’s gatekeeper informed about the arrival of the Lord. Both the brothers stood up and came out. , As soon as he saw the Lord, he became very happy and saluted him and did three rounds of his circumambulation.

Immediately King Shreyansa remembered his past life. Came and remembered the entire method of donating food. When Vankajangha and Shrimati had donated food to Charan Muni in the forest. The scene of that time became present as it was. The soul of King Vankajangha has become Lord Rishabhdev and the soul of Queen Shrimati has become King Shreyansa.

Vaishakh fell on Sudi Tritiya, hence from then till today, that day is famous everywhere on earth by the name of holy “Akshay Tritiya” and is celebrated as a great festival. At that time King Shreyansa was known as the ‘initiator of Daan Tirtha’.

The gods also worshiped Shreyansh Kumar with surprise and Bharat Chakraborty came and was filled with joy and asked, O Kuruvansh Shikhamane! How did you know this method of donating food?

Then King Shreyansa started talking about his caste remembrance. O Emperor Bharat! The eighth Bhava is before this Bhava. There is a town named Utpalkhet in Pushkalavati country of Purvvideh of Jambudweep.Its king Vangajangha along with his wife Rani, while going to his in-laws house, stopped in the forest on the way. At that time suddenly two sages possessing Charanriddhi came there for food. He had a Vrittiparisankhyan fast of consuming food in the forest itself.

As soon as the king saw him, he stood up with utmost respect along with the queen and examined him and then made him sit on a high seat. After washing their lotus feet, worshiping them, offering namaskar to them and praying for purity of mind, speech, body and food, the king, integrated with virtues like faith and devotion, gave food to the two sages along with the queen as per the rituals.

At that time, the Gods became enthralled and started showering gems and flowers, blowing soft fragrant winds, playing musical instruments and making appreciative sounds like “Aho Daan, Aho Daan”.

After the next meal, the king again worshiped and worshiped him. Through Anantar Kanchuki, the king came to know that these two great sages were his own last couple sons.

Their names are Damdhar and Sagarsen. Meaning, Rani Shrimati had the ninety-eighth son. , All of them had taken Jaineshwari Diksha along with their Baba. This is the last among them. On hearing this, the king felt immense love.

The king, filled with devotion, sat at her feet and asked about his and his wife’s past experiences. Started asking again, Oh God! This is our minister, The commander, priest and Sethji were watching your meal with utmost devotion, I have great affection for them and these lions, pigs, Nakul and monkeys who were watching your meal with great eagerness and calmness, they are also some grand creatures.

Please do everyone a favor by narrating the previous events of all these and Gurudev narrated the different events of everyone one by one. Antar Raja again requested that how many more births do we still have left in this world? Muniraj said – Rajan! May you all be close.

In the eighth bhava, you will be Tirthankar Rishabhdev, the original creator of the era, will start the trend of religious pilgrimage and will be the originator of charity pilgrimage by becoming King Shreyansa of Mata Shrimati. In that future, your wise ministers will be your first son, Emperor Bharat Chakravarti, in whose name this country India will be blessed with this meaningful name.This Anand Purohit will be the mighty son of Kamadeva named Bahubali. The commander’s creature will be Rishabhsen who will be your first Ganadhar.

This Dhanamitra will be the son of Seth named Anantvijay and these lion, pig, monkey and Nakul’s creatures have also accumulated immense virtue due to the influence of the approval of charity. After dying and becoming a human being in the Uttam Bhoomi, they will again in time become your sons named Anantvirya, Achyut, Veer and Suveer in your Rishabhdev synonym, that is, these eight living beings, after enjoying the pleasures of the best gods and humans along with you, will again become your sons in the Tirthankar synonym. We will attain salvation from that very state.

In this way, after listening to all the past stories from the mouth of King Shreyansa, Bharat Chakravarti became extremely happy and after honoring him with many gems and jewelery and decorating him with the title of “Danatirtha Pravartak”, he returned to his Ayodhya.

Dear sisters! With the effect of a single donation of food, what excellent results were achieved by the married couple, King Vangajangha and Queen Smriti, and what great unimaginable results were achieved by those ministers, the commander, the priest and the merchant who just approved after seeing that donation, and by the four animals similar to them. Received.

Hey! The glory of charity is unimaginable. Even in today’s era, one should make one’s human life successful by having immense devotion towards those saints who consider themselves to be Mahamunis, Aryikas, Kshullakas, Kshullikas etc. It is also said-

Bhuktimatrapradane tu ka parikha tapswinam
te santah santvasanto va grahi danen shudhyati ||

Meaning: Why test the ascetics just for providing food? Whether they are blessed with virtues or not, the householder must be pure through charity. will go . Let us see what is the result of devotion and donations to the Gurus.

Uchchairgotram Pranaterbhogo Danadupasanatpuja.
bhatteah Sundarrupam Stavanatkirtistaponidhishu ||

Meaning: By paying obeisance to the sages, one attains a higher Gotra. By donating to them one gets enjoyment. Worship is achieved by worshiping them. Devotion to Him leads to beautiful appearance and praising Him leads to fame.

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Author: Jain Alerts
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