जैन धर्म भारत का एक प्राचीन धर्म है, जिसकी जड़ें हजारों वर्ष पुरानी हैं। यह धर्म आत्म-शुद्धि, अहिंसा, और आत्म-नियंत्रण पर जोर देता है।
जैन धर्म की उत्पत्ति:
- प्राचीनता: जैन धर्म के अनुयायी मानते हैं कि यह धर्म अनादि काल से अस्तित्व में है और अनंत काल तक रहेगा। ऐतिहासिक दृष्टि से, जैन धर्म का उद्भव भारत में लगभग 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व माना जाता है।
- तीर्थंकरों की परंपरा: जैन धर्म में 24 तीर्थंकरों की परंपरा है, जिन्होंने धर्म का प्रचार-प्रसार किया। प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ) थे, जबकि अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी थे, जिन्होंने 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व में अपने उपदेशों से धर्म को सुदृढ़ किया।
- महावीर स्वामी का योगदान: भगवान महावीर का जन्म वैशाली गणराज्य के कुण्डग्राम में हुआ था। उन्होंने 30 वर्ष की आयु में राजसी जीवन त्यागकर संन्यास ग्रहण किया और 12 वर्षों की तपस्या के बाद कैवल्य (पूर्ण ज्ञान) प्राप्त किया। महावीर स्वामी ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह के पंच महाव्रतों का प्रचार किया, जो जैन धर्म के मूल सिद्धांत हैं।
जैन धर्म का प्रसार:
- भाषा और साहित्य: महावीर स्वामी ने अपने उपदेश प्राकृत भाषा में दिए, जिससे सामान्य जन उन्हें आसानी से समझ सकें। जैन साहित्य में ‘आगम’ और ‘सिद्धांत’ प्रमुख ग्रंथ हैं, जो धर्म के सिद्धांतों का विस्तार से वर्णन करते हैं।
- संप्रदाय: समय के साथ, जैन धर्म में दो प्रमुख संप्रदाय विकसित हुए: दिगंबर और श्वेतांबर। दिगंबर संप्रदाय के साधु पूर्ण नग्नता का पालन करते हैं, जबकि श्वेतांबर संप्रदाय के साधु सफेद वस्त्र धारण करते हैं।
जैन धर्म के मूल सिद्धांत:
- अहिंसा (Non-violence): सभी जीवों के प्रति दया और सम्मान, किसी भी प्रकार की हिंसा से बचना।
- सत्य (Truth): हमेशा सत्य बोलना और झूठ से परहेज करना।
- अस्तेय (Non-stealing): बिना अनुमति के किसी की वस्तु न लेना।
- ब्रह्मचर्य (Celibacy): इंद्रियों पर नियंत्रण और संयमित जीवन।
- अपरिग्रह (Non-possession): भौतिक वस्तुओं के प्रति आसक्ति न रखना और सरल जीवन जीना।
जैन धर्म का उद्देश्य आत्मा की शुद्धि और मोक्ष की प्राप्ति है। इसके अनुयायी अहिंसा, सत्य, और संयम के मार्ग पर चलकर आत्म-साक्षात्कार की दिशा में अग्रसर होते हैं।
Jainism: Origin and Principles
Jainism is an ancient religion from India, emphasizing self-purification, non-violence, and self-discipline.
Origin of Jainism:
- Antiquity: Followers believe Jainism has existed eternally and will continue forever. Historically, its emergence is traced back to around the 6th century BCE in India.
- Tirthankara Tradition: Jainism acknowledges 24 Tirthankaras who propagated the religion. The first was Lord Rishabhanatha (Adinatha), and the last was Lord Mahavira, who strengthened the faith in the 6th century BCE.
- Contribution of Lord Mahavira: Born in Kundagrama of the Vaishali Republic, Lord Mahavira renounced royal life at 30. After 12 years of penance, he attained Kevala Jnana (omniscience). He preached the Five Great Vows: non-violence, truth, non-stealing, celibacy, and non-possession, which are the core principles of Jainism.
Spread of Jainism:
- Language and Literature: Lord Mahavira delivered his teachings in Prakrit, making them accessible to the common people. Key Jain scriptures include the ‘Agamas’ and ‘Siddhanta,’ detailing the religion’s doctrines.
- Sects: Over time, two main sects emerged: Digambara and Shvetambara. Digambara monks practice complete nudity, symbolizing detachment, while Shvetambara monks wear white garments.
Core Principles of Jainism: Jain Dharma’s Five Mahavrats
- Ahimsa (Non-violence): Showing compassion and respect towards all living beings, avoiding any form of harm.
- Satya (Truth): Always speaking the truth and refraining from falsehood.
- Asteya (Non-stealing): Not taking anything without permission.
- Brahmacharya (Celibacy): Exercising control over desires and leading a disciplined life.
- Aparigraha (Non-possession): Detachment from material possessions and leading a simple life.
The aim of Jainism is the purification of the soul and attainment of liberation (moksha). Adherents follow the path of non-violence, truth, and restraint to progress towards self-realization.