गुरुवरनुं मीठुं स्थित, मारूं सत्व वधारे छे, 

प्रभुवरनी वाणी फेलावी, सत्व वधारे छे…(१)

 

पर्वत पासे उभो पेलो, सूर्य केवो मलकाई रह्यो, 

गुरुवरनी कांतिने जोई, चंद्र पण शरमाई गयो,

 नभमां तारलीया टमकी, एनुं तेज वधारे छे… गुरुवरनुं…(२)

 

मृगजळ रूपी सुखोमां हुं, आज गुरु अटवाय गयो, 

स्वार्थ भरेला संबंधोमां, रोज-रोज रंगाई रह्यो, 

कंटक भरेली केडीमां, उपवन बिछावे छे… गुरुवरनुं…(३)

 

 रणप्रदेशे सात समंदर, आज जाणे छलकाई गया,

 गगनप्रदेशे मेघधनुषनां, सात रंग रचाई गया,

“अभय” गुरुनो सथवारो, शिखरे पहोंचाडे छे… गुरुवरनुं…(४)

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