Adinath, also known as Adinath, Adipurush, or Adish, is revered as the first Tirthankara in Jainism, with his symbol being the bull. Born to Maharaja Nabhiray and Maharani Marudevi, he was married to Yashaswati and Sunandavapsa.
तीर्थंकर आदिनाथ/ ऋषभदेव परिचय और इतिहास हिंदी में
तीर्थंकर आदिनाथ/ ऋषभदेव परिचय
अन्य नाम | आदिनाथ, आदिपुरुष, आदीश, ऋषभदेव |
अगले | अजितनाथ भगवान |
चिन्ह | बैल |
पिता | महाराज नाभिराय |
माता | महारानी मरुदेवी |
पत्नी | यशस्वती एवं सुनन्दावापस |
सन्तान | 101 पुत्र भरत और बाहुबली सहित, पुत्रियाँः ब्राह्मी, सुन्दरी |
वंश | इक्ष्वाकु |
वर्ण | क्षत्रिय |
अवगाहना | 500 धनुष (दो हजारहाथ) |
देहवर्णतप्त | स्वर्ण सदृश |
आयु | 8,400,000 पूर्व वर्ष(२)(३)(४) |
वृक्ष | वट वृक्ष |
प्रथम आहार | हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस द्वारा (इक्षुरस) |
तीर्थंकर आदिनाथ/ ऋषभदेव गर्भपंचकल्याणक तिथियां
गर्भ | आषाढ़ कृ.२ अयोध्या |
जन्म | चैत्रकृ.६ अयोध्या |
दीक्षा | चैत्र कृ.६ प्रयाग |
केवलज्ञान | फाल्गुन कृ.११ प्रयागवापस |
मोक्ष | माघ कृ. १४ कैलाश पर्वत |
तीर्थंकर आदिनाथ/ ऋषभदेव समवशरण
गणधर | श्री वृषभसेन आदि ८४ |
मुनि | चौरासी हजार |
गणिनी | आर्यिका ब्राह्मी |
आर्यिका | तीन लाख पचास हजार |
श्रावक | तीन लाख |
श्राविका | पांच लाख |
यक्ष | गोमुख देव |
यक्षी | चक्रेश्वरी देवी |
आदिनाथ भगवान का विस्तृत परिचय
इसी जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से पश्चिम की ओर (विदेह क्षेत्र) में एक ‘गंधिल’ नाम का देश है। जो कि स्वर्ग के समान शोभायमान है। उस देश में हमेशा श्री जिनेन्द्ररूपी सूर्य उदय रहता है।
इसीलिये वहाँ मिथ्यादृष्टियों का उद्भव कभी नहीं होता। इस देश के मध्य भाग में रजतमय एक (विजयार्ध)) नाम का बड़ा भारी पर्वत है। उस विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में एक अलका नाम की श्रेष्ठ पुरी है ।
उस अलकापुरी का राजा अतिबल नाम का विद्याधर था, जिसकी मनोहरा नाम की पतिव्रता रानी थी। उन दोनों के अतिशय भाग्यशाली ‘महाबल’ नामका पुत्र उत्पन्न हुआ।
किसी समय भोगों से विरक्त हुए महाराज अतिबल ने राज्याभिषेकपूर्वक अपना समस्त राज्य महाबल पुत्र को सौंप दिया और आप अनेक विद्याधरों के साथ वन में जाकर दीक्षा ले ली।
महाबल राजा के स्वयंबुद्ध, महामति, संभिन्नमति और शतमति नाम के चार मंत्री थे जो महाबुद्धिमान, स्नेही और दीर्घदर्शी थे। इनमें स्वयंबुद्ध सम्यग्दृष्टि था एवं शेष तीनों मिथ्यादृष्टि थे।
किसी समय अपने जन्मगांठ के उत्सव में राजा महाबल सिंहासन पर विराजमान थे। उस समय अनेकों उत्सव, नृत्य, गान और विद्वद्गोष्ठियाँ हो रही थीं।
अवसर पाकर स्वयंबुद्ध मंत्री ने स्वामी के हित की इच्छा से जैन धर्म का मार्मिक उपदेश दिया।
उसके वचनों को सुनने के लिये असमर्थ भूतवादी महामति मंत्री ने चार्वांक मत को सिद्ध करते हुए जीव तत्त्व का अभाव सिद्ध कर दिया ।
बौद्धमतानुयायी संभिन्नमति मंत्री ने विज्ञानवाद का आश्रय लेकर जीव का अभाव करना चाहा, उसने कहा–ज्ञान ही मात्र तत्त्व है और सब भ्रममात्र है।
इसके बाद शतमति मंत्री ने | शून्यवाद का अवलम्बन लेकर सकल जगत् को शून्यमात्र सिद्ध कर दिया।
इन तीनों की बातें सुनकर स्वयंबुद्ध मंत्री ने तीनों के एकान्त दुराग्रह को न्याय और आगम | के द्वारा खण्डन करके सच्चे स्याद्वादमय अहिंसा धर्म की सिद्धि करके उन्हें निरुत्तर कर दिया और राजा को प्रसन्न कर लिया।
इसके बाद किसी एक दिन स्वयंबुद्ध मंत्री अकृत्रिम चैत्यालय की वन्दना के लिये सुमेरु पर्वत पर गया, वहाँ पहुंच कर उसने पहले प्रदक्षिणा दी फिर भक्तिपूर्वक बार- बार नमस्कार किया और पूजा की।
यथाक्रम से भद्रसाल आदि वन की समस्त अकृत्रिम प्रतिमाओं की वन्दना की और सौमनस वन के चैत्यालय में बैठ गया। इतने में ही विदेह क्षेत्र से आये हुए, आकाश में चलने वाले आदित्यगति और अरिंजय नाम के दो चारण मुनि अकस्मात् देखे, वे दोनों ही मुनि ‘युगंधर’ भगवान के समवसरणरूपी सरोवर के मुख्य हंस थे।
मंत्री ने उठकर उन्हें प्रदक्षिणापूर्वक प्रणाम करके पूजा और स्तुति की अनन्तर प्रश्न किया- हे स्वामिन्! विद्याधर का राजा महाबल हमारा स्वामी है। वह भव्य है या अभव्य ? मेरे द्वारा सन्मार्ग भी ग्रहण करेगा या नहीं? इस प्रश्न के बाद आदित्यगति नामक अवधिज्ञानी मुनि कहने लगे हे भव्य ! तुम्हारा स्वामी भव्य ही है।
वह तुम्हारे वचनों पर विश्वास करेगा और आज से दसवें भव में जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में प्रथम तीर्थंकर होगा । इसके पूर्वभव को तुम सुनो –
जम्बूद्वीप के मेरु पर्वतसे पश्चिम की ओर विदेह क्षेत्र में ‘गंधिला ́ देश में सिंहपुर नगर है वहां के श्रीषेण राजा की सुन्दरी रानी से जयवर्मा और श्रीवर्मा ऐसे दो पुत्र हुए थे। पिता ने योग्यता और स्नेह के निमित्त से छोटे पुत्र श्रीवर्मा को राज्य दे दिया। तब जयवर्मा विरक्त होकर स्वयंप्रभु गुरु से दीक्षा लेकर तपश्चरण करने लगा और किसी समय आकाश मार्ग में जाते हुए महीधर विद्याधर होने का निदान कर लिया।
इतने में ही सर्प के डसने से मरकर तुम्हारा स्वामी महाबल हुआ है। आज रात्रि में उसने दो स्वप्न देखे हैं। तुम जाकर उनका फल कहकर उसके पूर्व भव सुनाओ। उसका कल्याण होने वाला है।
गुरु के वचन से मंत्री वहां आकर बोले- राजन् । आपने जो स्वप्न देखा है कि तीनों मंत्रियों ने कीचड़ में डाल दिया और मैंने उठाकर सिंहासन पर बैठाया सो यह मिथ्यात्व के कुफल से आप निकलकर जिनधर्म में आ गये हैं।
दूसरे स्वप्न में जो आपने अग्नि की ज्वाला क्षीण होते देखी | उसका फल आपकी आयु एक माह की शेष रही है। आप दसवें भव में तीर्थंकर. होंगे इत्यादि ।
सारी बातें मंत्री ने सुना दी। राजा महाबल ने भीअपने पुत्र अतिबल को राज्यभार सौंपकर सिद्धकूट चैत्यालय में जाकर सिद्ध प्रतिमाओं की पूजा करके गुरु की साक्षीपूर्वक जीवनपर्यन्त के लिये चतुराहार त्याग कर सल्लेखना धारण कर ली और धर्मध्यानपूर्वक मरण करके ऐशान स्वर्ग के श्रीप्रभ विमान में ललितांग नाम का उत्तम देव हो गया।
जब उसकी आयु पृथक्त्व पल्य के बराबर रह गयी तब उसे स्वयंप्रभा नाम की एक और देवी प्राप्त हुई। अन्य देवियों की अपेक्षा ललितांग देव को यह देवी विशेष प्यारी थी। जब उस देव की माला आदि मुरझाई तब मृत्यु निकट जानकर शोक करते हुए इसको अनेकों देवों ने सम्बोधन किया जिसके फलस्वरूप इस देव ने पन्द्रह दिन तक जिन चैत्यालयों की पूजा की और अच्युत स्वर्ग की जिन प्रतिमाओं की पूजा करके वहीं पर चैत्यवृक्ष के नीचे बैठकर उच्चस्वर से महामंत्र का उच्चारण करते हुए सल्लेखना से मरण को प्राप्त हो गया ।
जम्बूद्वीप के महामेरु से पूर्व की ओर विदेह क्षेत्र में पुष्कलावती देश है उसके उत्पलखेटक नगर के राजा वज्रबाहु और रानी वसुंधरा से वह ललितांग देव ‘वज्रजंघ’ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। उधर अपने पति के अभाव में वह पतिव्रता स्वयंप्रभा छह महीने तक बराबर जिनपूजा में तत्पर रही।
पश्चात् सौमनस वन सम्बन्धी पूर्व दिशा के जिन मन्दिर में चैत्यवृक्ष के नीचे पंचपरमेष्ठी का स्मरण करते हुए समाधिपूर्वक प्राण त्याग दिये और विदेह क्षेत्र की पुंडरीकिणी नगरी के राजा वज्रदन्त की महारानी लक्ष्मीमती से ‘श्रीमती’ नाम की कन्या उत्पन्न हो गयी। कालान्तर में निमित्तवश इस वज्रजंघ और श्रीमती का विवाह हो गया।
इनके उनचास युगल पुत्र उत्पन्न हुए अर्थात् अट्ठानवे पुत्र उत्पन्न हुए। किसी समय वे अपने बाबा के साथ दीक्षित हो गए।किसी समय श्रीमती के पिता चक्रवर्ती वज्रदन्त ने छोटे से पोते पुंडरीक का राज्याभिषेक कर दिया और विरक्त होकर दीक्षा ले ली। उस समय लक्ष्मीमती माता ने अपनी पुत्री और जमाई को बुलाया।
ये दोनों वैभव के साथ पुंडरीकिणी नगरी की ओर आ रहे थे। मार्ग में किसी वन मेंही पड़ाव डाला। वहाँ पर आकाश में गमन करने वाले श्रीमान् दमधर और सागरसेन मुनि युगल वज्रजंघ के पड़ाव में पधारे । उन दोनों ने वन में आहार लेने की प्रतिज्ञा ली थी। वहां वज्रजंघ ने श्रीमती के साथ नवधाभक्ति सहित विधिवत् आहार दान दिया और पंचाश्चर्य को प्राप्त हुए।
अनन्तर उन्हें कंचुकी से विदित हुआ कि ये दोनों मुनि हमारे ही अंतिम पुत्र युगल हैं। राजा वज्रजंघ और श्रीमती ने उनसे अपने पूर्वभव सुने और धर्म के मर्म को समझा अनन्तर पास में बैठे हुए नकुल, सिंह, वानर और सूकर के पूर्व भव सुने। उन मुनियों ने यह भी बताया कि आप आठवें भव में ऋषभदेव तीर्थंकर होवोगे और श्रीमती का जीव राजा श्रेयांसकुमार होंगे।
किसी समय वज्रजंघ महाराज रानी सहित अपने शयनागार में सोये हुए थे उसमें नौकरों ने कृष्णागरू आदि से निर्मित धूप खेई थी और वे नौकर रात में खिड़कियाँ खोलना भूल गये, जिसके निमित्त धुएँ से कण्ठ रुँधकर वे पति पत्नी दोनों ही मृत्यु को प्राप्त हो गये । आश्चर्य है कि भोग सामग्री प्राणघातक बन गयी ।
वे दोनों दान के प्रभाव से मरकर उत्तरकुरु नामक उत्तम भोगभूमि में भोगभूमिया हो गये। वे नकुल आदि भी दान की अनुमोदना से भोग भूमि को प्राप्त हो गये।किसी समय दो चारण मुनि आकाश मार्ग से वहाँ भोगभूमि में उतरे और इन वज्रजंघ आर्य और श्रीमती आर्या को सम्यग्दर्शन का उपदेश देने लगे। ज्येष्ठ मुनि बोले, हे आर्य! तुम मुझेस्वयंबुद्ध मंत्री का जीव समझो। मैंने तुम्हें महाबल पर्याय में जैन धर्म ग्रहण कराया था।
उन दोनों दम्पत्तियों ने मुनियों के प्रसाद से सम्यग्दर्शन ग्रहण किया और आयु के अन्त में च्युत होकर ईशान स्वर्ग में ‘श्रीधर’ देव और स्वयंप्रभ नाम के देव हुए । अर्थात् श्रीमती का जीव सम्यक्त्व के प्रभाव से स्त्री पर्याय छोड़कर देव पद को प्राप्त हो गया। एक दिन श्रीधर देव ने अपने गुरु (स्वयंबुद्ध मंत्री के जीव) प्रीतिंकर मुनिराज के समवसरण में जाकर पूछा-भगवन्! मेरे महाबल के भव में जो तीन मंत्री थे वे इस समय कहाँ हैं? भगवान ने बताया कि उन तीनों में से महामति और सम्भिन्नमति ये दो तो निगोद स्थान को प्राप्त हुए हैं और शतमति नरक गया है।
तब श्रीधरदेव ने नरक में जाकर शतमति के जीव को सम्बोधित किया था तथा निगोद के जीवों को सम्बोधन का सवाल ही नहीं है।जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में महावत्स देश है उसकी सुसीमा नगरी के सुदृष्टि राजा की सुन्दरनन्दा रानी से वह श्रीधर देव स्वर्ग से च्युत होकर ‘सुविधि’ नाम का पुत्र हुआ था।
कालांतर में सुविधि की रानी मनोरमा से स्वयंप्रभ देव (श्रीमती का जीव) स्वर्ग से च्युत होकर केशव नाम का पुत्र हो गया, मतलब वज्रजंघ का जीव सुविधि राजा हुआ और श्रीमती का जीव उसका पुत्र हुआ है।कदाचित् सुविधि महाराज दैगम्बरी दीक्षा लेकर अन्त में मरकर अच्युतेन्द्र हुए और केशव ने भी निर्ग्रन्थ दीक्षा लेकर अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र पद प्राप्त किया।
वह अच्युतेन्द्र, जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह में पुष्कलावती देश की पुंडरीकिणी नगरी में वज्रसेन राजा और श्रीकान्ता रानी से वज्रनाभि नाम का चक्रवर्ती पुत्र उत्पन्न हुआ। श्रीमती का जीव केशव जो अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र हुआ था वह भी वहां से च्युत होकर इसी नगरी में कुबेरदत्त वणिक की अनन्तमती पत्नी से धनदेव नाम का पुत्र हुआ ।
वज्रनाभि के पिता तीर्थंकर थे और वह स्वयं चक्रवर्ती था, चक्ररत्न से षट्खंड वसुधा को जीतकर चिरकाल तक साम्राज्य सुख का अनुभव किया। किसी समय पिता से दुर्लभ रत्नत्रय के स्वरूप को समझकर अपने पुत्र वज्रदन्त को राज्य समर्पण कर सोलह हजार मुकुटबद्ध राजाओं, एक हजार पुत्रों, आठ भाइयों और धनदेव के साथ-साथ पिता वज्रसेन तीर्थंकर के समवसरण में जिनदीक्षा धारण कर ली और किसी समय तीर्थंकर के ही निकट सोलहकारण भावनाओं का चिन्तवन करते हुए तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया।
ध्यान की विशुद्धि से ग्यारहवें गुणस्थान में पहुंच गये और वहां का अन्तर्मुहूर्त काल पूर्ण कर नीचे उतरे, पुनरपि कदाचित् उपशम श्रेणी में चढ़ गये और वहां आयु समाप्त होते ही मरण कर सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हो गये।
आदिनाथ भगवान का गर्भावतार
भगवान् के गर्भ में आने के छह महीने पहले इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने माता के आंगन में साढ़े सात करोड़ रत्नों की वर्षा की थी। किसी दिन रात्रि के पिछले प्रहर में रानी मरुदेवी ने ऐरावत हाथी, शुभ्र बैल, हाथियों द्वारा स्वर्ण घटों से अभिषिक्त लक्ष्मी, पुष्पमाला आदि सोलह स्वप्न देखे।
प्रातः पतिदेव से स्वप्न का फल सुनकर अत्यन्त हर्षित हुईं। उस समय अवसर्पिणी काल के सुषमा दुःषमा नामक तृतीय काल में चैरासी लाख पूर्व तीन वर्ष, आठ मास और एक पक्ष शेष रहने पर आषाढ़ कृष्ण द्वितीया के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में वज्रनाभि अहमिन्द्र देवायु का अन्त होने पर सर्वार्थसिद्धि विमान से च्युत होकर मरुदेवी के गर्भ में अवतीर्ण हुए।
उस समय इन्द्र ने आकर गर्भकल्याणक महोत्सव मनाया। इन्द्र | की आज्ञा से श्री, आदि देवियाँ और दिक्कुमारियाँ | माता की सेवा करते हुए काव्यगोष्ठी, सैद्धान्तिक चर्चाओं से और गूढ़ प्रश्नों से माता का मन अनुरंजित करने लगीं ।
आदिनाथ भगवान का जन्म महोत्सव
नव महीने व्यतीत होने पर माता मरुदेवी ने चैत्र कृष्ण नवमी के दिन सूर्योदय के समय मति-श्रुत–अवधि इन तीनों ज्ञान से सहित भगवान् को जन्म दिया। सारे विश्व में हर्ष की लहर दौड़ गई।
इन्द्रों के आसन कम्पित होने से, कल्पवृक्षों से पुष्पवृष्टि होने से एवं चतुर्निकाय देवों के यहां घंटा ध्वनि, शंखनाद आदि बाजों के बजने से भगवान का जन्म हुआ है ऐसा समझकर सौधर्म इन्द्र ने इन्द्राणी सहित ऐरावत हाथी पर चढ़कर नगर की प्रदक्षिणा करके भगवान को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर 1008 कलशों से क्षीरसमुद्रके जल से भगवान का जन्माभिषेक ।
अनन्तर वस्त्राभरणों से अलंकृत करके ‘ऋषभदेव’ यह नाम रखा । इन्द्र अयोध्या में वापस आकर स्तुति, पूजा, तांडव नृत्य आदि करके स्वस्थान को चले गये ।
आदिनाथ भगवान का विवाहोत्सव
भगवान् के युवावस्था में प्रवेश करने पर महाराजा नाभिराज ने बड़े ही आदर से भगवान् की स्वीकृति प्राप्त कर इन्द्र की अनुमति से कच्छ, सुकच्छ राजाओं की बहन ‘यशस्वती’, ‘सुनन्दा’ के साथ श्री ऋषभदेव का विवाह सम्पन्न कर दिया ।
भरत चक्रवर्ती जन्म
यशस्वती देवी ने चैत्र कृष्ण नवमी के दिन भरत चक्रवर्ती को जन्म दिया तथा क्रमशः निन्यानवे पुत्र एवं ब्राह्मी कन्या को जन्म दिया। दूसरी सुनन्दा महादेवी ने कामदेव भगवान बाहुबली और सुन्दरी नाम की कन्या को जन्म दिया ।
इस प्रकार एक सौ तीन पुत्र, पुत्रियों सहित भगवान ऋषभदेव, देवों द्वारा लाये गये भोग पदार्थों का अनुभव करते हुए गृहस्थ जीवन व्यतीत कर रहे थे।
आदिनाथ भगवान के पुत्र पुत्रियों का विद्याध्ययन
भगवान ऋषभदेव गर्भ से ही अवधिज्ञानधारी होने से स्वयं गुरु थे। किसी समय भगवान ब्राह्मीसुन्दरी को गोद में लेकर उन्हें आशीर्वाद देकर चित्त में स्थित श्रुतदेवता को सुवर्णपट्ट पर स्थापित कर ‘सिद्धं नमः’ मंगलाचरणपूर्वक दाहिने हाथ से ‘अ, आ’ आदि वर्णमाला लिखकर ब्राह्मी कुमारी को लिपि लिखने का एवं बायें हाथ से सुन्दरी को अनुक्रम के द्वारा इकाई, दहाई आदि अंक विद्या को लिखने का उपदेश दिया था। इसी प्रकार भगवान ने अपने भरत, बाहुबली आदि सभी पुत्रों को सभी विद्याओं का अध्ययन कराया था ।
षट्क्रियाओं का उपदेश
काल प्रभाव से कल्पवृक्षों के शक्तिहीन हो जाने पर एवं बिना बोये धान्य के भी विरल हो जाने पर व्याकुल हुई प्रजा नाभिराज के पास गई। अनन्तर नाभिराज की आज्ञा से प्रजा भगवान ऋषभदेव के पास आकर रक्षा की प्रार्थना करने लगी। प्रजा1 के दीन वचन सुनकर भगवान ऋषभदेव अपने मन में सोचने लगे कि पूर्व-पश्चिम विदेह में जो स्थिति वर्तमान है वही स्थिति आज यहाँ प्रवृत्त करने योग्य है। उसी से यह प्रजा जीवित रह सकती है।
वहां जैसे असि मषि आदि षट्कर्म हैं, क्षत्रिय आदि वर्ण व्यवस्था, ग्राम-नगर आदि की रचना है वैसे ही यहां भी होना चाहिये। अनन्तर भगवान ने इन्द्र का स्मरण किया और स्मरणमात्र से इन्द्र ने आकर अयोध्यापुरी के बीच में जिनमंन्दिर की रचना करके चारों दिशाओं में जिनमन्दिर बनाये ।
कौशल, अंग, बंग आदि देश, नगर बनाकर प्रजा को बसाकर प्रभु की आज्ञा से इन्द्र स्वर्ग को चला गया। भगवान ने प्रजा को असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह कर्मों का उपदेश दिया।
उस समय भगवान सरागी थे। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों की स्थापना की और अनेकों पाप रहित आजीविका के उपाय बताये। इसीलिये भगवान युगादिपुरुष, आदिब्रह्मा, विश्वकर्मा, स्रष्टा, कृतयुग विधाता और प्रजापति आदि कहलाये । उस समय इन्द्र ने भगवान का साम्राज्य पद पर अभिषेक कर दिया ।
आदिनाथ भगवान का वैराग्य और दीक्षा
किसी समय सभा में नीलांजना के नृत्य को देखते हुए बीच में उसकी आयु के समाप्त होने से भगवान को वैराग्य हो गया। भगवान ने भरत का राज्याभिषेक करते हुए इस पृथ्वी को ‘भारत’ इस नाम से सनाथ किया और बाहुबली को युवराज पद पर स्थापित किया।
भगवान महाराज नाभिराज आदि को पूछकर इन्द्र द्वारा लाई गई ‘सुदर्शना’ नामक पालकी पर आरूढ़ होकर ‘सिद्धार्थक’ वन में पहुंचे और वटवृक्ष के नीचे बैठकर – नमः सिद्धेभ्यः मन्त्र का उच्चारण कर पंचमुष्टि केशलोंच करके सर्व परिग्रह रहित मुनि हो गये। उस स्थान की इन्द्रों ने पूजा की थी इसीलिये उसका ‘प्रयाग’ यह नाम प्रसिद्ध हो गया अथवा भगवान ने वहां प्रकृष्ट रूप से त्याग किया था इसीलिये भी उसका नाम प्रयाग हो गया था।। उसी समय भगवान ने छह महीने का योग ले लिया। भगवान के साथ आये हुए चार हजार राजाओं ने भी भक्तिवश नग्न मुद्रा धारण कर ली।
।। पाखंड मत उत्पत्ति ।।
भगवान के साथ दीक्षित हुए राजा लोग दो-तीन महीने में ही क्षुधा, तृषा आदि से पीड़ित होकर अपने हाथ से वन के फल आदि ग्रहण करने लगे। इस क्रिया को देख वन देवताओं ने कहा कि मूर्खों! यह दिगम्बर वेष सर्वश्रेष्ठ अरहंत, चक्रवर्ती आदि के द्वारा धारण करने योग्य है। तुम लोग इस वेष में अनर्गल प्रवृत्ति मत करो। यह सुनकर उन लोगों ने भ्रष्ट हुये तपस्वियों के अनेकों रूप बना लिये, वल्कल, चीवर, जटा, दण्ड आदि धारण करके वे पारिव्राजक आदि बन गये। भगवान ऋषभदेव का पौत्र मरीचिकुमार इनमें अग्रणी गुरू परिव्राजक बन गया। ये मरीचि कुमार आगे चलकर अंतिम तीर्थंकर महावीर हुए हैं।
आदिनाथ भगवान का प्रथम आहार ग्रहण
जगद्गुरु भगवान छह महीने बाद आहार को निकले परन्तु चर्याविधि किसी को मालूम न होने से सात माह नौ दिन और व्यतीत हो गये अतः एक वर्ष उनतालीस दिन बाद भगवान कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में पहुंचे । भगवान को आते देख राजा श्रेयांस को पूर्व भव का स्मरण हो जाने से राजा सोमप्रभ के साथ श्रेयांसकुमार ने विधिवत् पड़गाहन आदि करके नवधाभक्ति से भगवान को इक्षुरस का आहार दिया। वह दिन वैशाख शुक्ला तृतीया का था जो आज भी ‘अक्षय तृतीया’ के नाम से प्रसिद्ध
आदिनाथ भगवान को केवलज्ञान की प्राप्ति
हजार वर्ष तपश्चरण करते हुए भगवान को पूर्वतालपुर के उद्यान में-प्रयाग में वटवृक्ष के नीचे ही फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन केवलज्ञान प्रकट हो गया । इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने बारह योजन प्रमाण समवसरण की रचना की। समवसरण में बारह सभाओं में क्रम से
1.सप्तऋद्धि समन्वित गणधर देव और मुनिजन
2. कल्पवासी देवियाँ
3. आर्यिकायें और श्राविकायें
4. भवनवासी देवियाँ
5. व्यन्तर देवियाँ
6. ज्योतिष्क देवियाँ
7. भवनवासी देव
8. व्यन्तर देव
9. ज्योतिष्क देव
10. कल्पवासी देव
11. मनुष्य और
12. तिर्यंच बैठकर उपदेश सुनते थे।
पुरिमताल नगर के राजा श्री ऋषभदेव भगवान के पुत्र ऋषभसेन प्रथम गणधर हुए। ब्राह्मी भी आर्यिका दीक्षा लेकर आर्यिकाओं में प्रधान गणिनी हो गयीं।
भगवान के समवसरण में 84 गणधर, 84000 मुनि, 350000 आर्यिकायें, 300000 श्रावक, 500000 श्राविकायं, असंख्यातों देव देवियाँ और संख्यातों तिर्यंच उपदेश सुनते थे।
आदिनाथ भगवान का निर्वाण
जब भगवान की आयु चैदह दिन शेष रही तब कैलाश पर्वत पर जाकर योगों का निरोध कर माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन सूर्योदय के समय भगवान पूर्व दिशा की ओर मुँह करके अनेक मुनियों के साथ सर्वकर्मों का नाशकर एक समय में सिद्धलोक में जाकर विराजमान हो गये।
उसी क्षण इन्द्रों ने आकर भगवान का निर्वाण कल्याणक महोत्सव मनाया था, ऐसे ऋषभदेव जिनेन्द्र सदैव हमारी रक्षा करें। भगवान के मोक्ष जाने के बाद तीन वर्ष, आठ माह और एक पक्ष व्यतीत हो जाने पर चतुर्थ काल प्रवेश करता है। प्रथम तीर्थंकर का तृतीय काल में ही जन्म लेकर मोक्ष भी चले जाना यह हुंडावसर्पिणी के दोष का प्रभाव है। महापुराण में भगवान ऋषभदेव के ‘दशावतार’ नाम भी प्रसिद्ध हैं ।
1. विद्याधर राजा महाबल
2. ललितांग देव
3. राजा वज्रजंघ
4. भोगभूमिज आर्य
5. श्रीधर देव
6. राजा सुविधि
7. अच्युतेन्द्र
8. वज्रनाभि चक्रवर्ती
9. सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्र
10. भगवान ऋषभदेव ।
इन भगवान को ऋषभदेव, वृषभदेव, आदिनाथ, पुरुदेव और आदिब्रह्मा भी कहते हैं ।
Introduction and History of Tirthankara Adinath / Rishabhanatha in English
Aspect | Details |
---|---|
Introduction | |
Other Names | Adinath, Adipurush, Adish |
Successor | Bhagwan Ajitnath |
Emblem | Bull |
Father | Maharaj Nabhiray |
Mother | Maharani Marudevi |
Consorts | Yashaswati and Sunandavapsa |
Offspring | 101 sons including Bharat and Bahubali, daughters: Brahmi, Sundari |
Dynasty | Ikshvaku |
Caste | Kshatriya |
Physical Features | Height: 500 bows (approx. 2000 cubits), complexion akin to gold |
Lifespan | 8,400,000 purva years |
Tree | Peepal |
First Proclamation | By King Shreyans of Aaharhastinapur (Sugarcane juice) |
Significant Events | |
Garbha Panchkalyanak | |
Dates | Birth: Chaitra Krishna 6, Ayodhya; Initiation: Chaitra Krishna 6, Prayag; Omniscience: Phalguna Krishna 11, Prayagvasup |
Community Figures | |
Samavasharan | |
Ganadhar | 84 including Vrishabh Sen |
Munis | 84,000 |
Gani | Aryika Brahmi |
Aryika | Three hundred fifty thousand |
Shravaks | Three hundred thousand |
Shravikas | Five hundred thousand |
Yaksha | Gomukh Dev |
Yakshini | Chakreshvari Devi |
Detailed Introduction
In this Jambudvipa, towards the west of Mount Meru, lies a country named ‘Gandhila’ (modern-day Videha region), which shines like heaven itself. In this country, the sun rises in the form of Lord Jinendra, hence falsehoods never arise there. In the central part of this country, there is a massive mountain named ‘Vijayardha’ (Victory Peak), made of silver. At the northern range of this Vijayardha mountain lies a grand city named Alkapuri.
The king of Alkapuri was a knowledgeable Vidhyadhara named Atibal, whose charming queen was named Manohara. Their exceedingly fortunate son was named Mahabal.
Once, feeling detached from worldly pleasures, King Atibal handed over his entire kingdom to his son Mahabal through a coronation ceremony, and went to the forest along with many Vidhyadharas to take initiation.
Mahabal had four ministers named Swayambuddhi, Mahamati, Sambhinna-mati, and Shatmati, who were all highly intelligent, affectionate, and far-sighted. Among them, Swayambuddhi had Right Faith, and the remaining three had Wrong Faith.
Once, during the celebration of his birth anniversary, King Mahabal was seated on the throne. At that time, there were various celebrations, dances, songs, and intellectual discussions happening. Taking the opportunity, Minister Swayambuddhi imparted profound teachings of Jainism for the welfare of the Lord.
Unable to comprehend his teachings, the materialistic Minister Mahamati established the doctrine of Charvaka, asserting the absence of the soul. The Buddhist follower Minister Sambhinna-mati, taking refuge in science, attempted to negate the existence of the soul, stating that knowledge alone is the ultimate reality, and everything else is just an illusion. Following them, the Minister Shatmati, adhering to nihilism, established the concept of emptiness, declaring the entire universe as void.
Hearing the arguments of these three, Minister Swayambuddhi refuted their extreme views through logic and Agama, establishing the truth of Syadvada (doctrine of qualified assertion) and Ahimsa Dharma (non-violence) based on Jain principles, pleasing the king.
One day, Minister Swayambuddhi went to the summit of Mount Sumeru to offer reverence to an artificial temple. There, he circumambulated first, then bowed down repeatedly with devotion, and performed worship. He offered reverence to all the artificial idols in the forests of Bhadrasala and other forests, and finally sat in meditation in the temple of Soumanasa forest.
At that moment, unexpectedly, two Charan Monks named Adityagati and Arinjay, who were traveling in the sky, were seen. Both of them were the main swans of the Samavasaran of Lord Yugandhar. The Minister got up, circumambulated them with respect, worshiped and praised them, and then asked them questions: “O Lords! Mahabal, the king of the Vidhyadharas, is my master. Is he glorious or inglorious? Will he accept the right path advocated by me? Hearing this question, the omniscient monk named Adityagati said, “O glorious one! Your master is indeed glorious. He will believe in your words, and from today onwards, he will become the first Tirthankar in Bharat Kshetra of Jambudvipa. Before that, listen to his previous lives…”
From the Meru mountain in Jambudvipa to the west, in the Videha region, there is a city named Sinhapura. There, the beautiful queen of the king of the Shreshthi dynasty, Jayavarma, had two sons, Shri Varma and Shri Varma, due to her qualifications and affection, the father handed over the kingdom to the younger son Shri Varma. At that time, Jayavarma, feeling detached, took initiation from a self-restrained guru, and eventually, he attained the status of a Mahidhara Vidhyadhara. However, due to a serpent bite, your master Mahabal lost his life. Tonight, he saw two dreams. Go and tell him the result of those dreams. His auspicious time has come.
Upon hearing the Guru’s words, the minister returned and said, “O King! You had a dream that the three ministers threw you into the mud, and I lifted you up and seated you on the throne. Thus, you have emerged from the consequences of falsehood and entered into Jainism.”
In the second dream, you saw the flames diminishing. The result of this is that only one month of your life remains. You will become a Tirthankar in the tenth realm, etc.
Having heard all these words, King Mahabal handed over the kingdom to his son Atibal and, going to the Siddhakoot temple, worshipped the Siddha idols, and renounced worldly attachments under the guidance of the Guru, embracing asceticism. With meditative focus, he embraced death and ascended to the Vimana of the Lord of Ashoka Heaven named Lalitang.
As his life dwindled down to a month, he attained another deity named Swayamprabha. Compared to the other goddesses, Lalitang Dev was especially dear to him. When the garland of that deity wilted, indicating his imminent death, grieving over this, many deities approached him. As a result, for fifteen days, he worshipped the Jain idols in the Achyuta Heaven and finally, seated beneath the Jain tree, reciting the Mahamantra aloud, he attained liberation through renunciation.
In the eastern part of the Videha region, beyond Mount Mahameru, there is a country named Pushkalavati. From its city of Utpalakhetak, the king Vajrabahu and Queen Vasundhara had a son named Lalitang Dev, also known as Vajrajangha. Meanwhile, in the absence of her husband, the devoted wife Swayamprabha remained engrossed in Jain worship for six months continuously.
Later, under the Soumanasa forest temple, recalling the five supreme beings, she meditatively gave up her life force. In the city of Pundarikini in the Videha region, the king Vajradant’s queen Lakshmimati gave birth to a daughter named Shreemati. In due course, Vajrajangha and Shreemati got married.
They had eighty-one pairs of sons, meaning eighty-one sons were born to them. At some point, they both took initiation along with their father. Eventually, prompted by circumstance, Shreemati’s father, Emperor Vajradant, crowned his grandson Pundarik as the king and, feeling detached, took initiation. At that time, Queen Lakshmimati summoned her daughter and son-in-law.
Both of them were returning towards Pundarikini Nagar with prosperity when they took a halt in a forest along the way. There, in their path, arrived the revered monks Shriman Damadhar and Sagarasen, descending from the sky, in the presence of Vajrajangh. Both of them had taken a vow to have food in the forest. Vajrajangh, along with Shrimati, offered them a proper meal with devotion and obtained the five great vows.
Later, it became known to them through clairvoyance that these two monks were their own final pair of sons. King Vajrajangh and Shrimati heard about their past lives from them and gained an understanding of the essence of Dharma. Subsequently, they also heard about the past lives of Nakul, Singh, Vanar, and Sookar, who were nearby. Those monks also revealed that you will become the 22nd Tirthankar in the 8th realm, and Shrimati’s soul will be the Prince Shreyans Kumar.
At some point, King Vajrajangh, along with the queen, was asleep in their sleeping chamber. Servants had lit incense made from Krishnagaru, etc., and the servants forgot to open the windows at night, due to which, inhaling the smoke, both the husband and wife met their demise. It’s astonishing that the articles of enjoyment turned into instruments of death.
Due to their acts of charity, they attained celestial beingship in the Uttarakuru, an excellent land of enjoyment. Nakul and others also attained the land of enjoyment through the approval of charity. At some point, two Charan monks descended from the celestial realm into that land of enjoyment and began teaching the Aryas and Aryikas the doctrine of Samyagdarshan. The elder monk said, “O Aryas! Consider me your own self-realized mentor. I had initiated you into Jainism in the Mahabal Parayana.”
Those couples attained Samyagdarshan through the grace of the monks and, at the end of their lives, fell into the realm of Isan Heaven, becoming the gods Shridhar and Swamiprabha. In other words, Shrimati’s soul, due to the influence of Samyaktva, left the female state and attained the status of a deity. One day, Shridhar Dev went to the Samavasaran of his Guru, Preetinkar Muniraj, and asked, “Lord! Where are the three ministers of my Mahabal realm at this time?” The Lord replied that two of them, Mahamati and Sambhinamati, have attained the Nigod realm, and Shatmati has gone to hell.
Then, Shridhardev went to hell and addressed the soul of Shatmati, and there was no question of addressing the souls in Nigod. In the east of Jambudvipa, in Mahavatsa Desh in Videha, there is a city named Susima Nagar. From the sight of the king Sundarnanda and Queen Shrikanta, a son named Shridhar Dev was born. Shrimati’s soul, Kesav, who had attained Pratinidhi in the Achyuta Heaven, became the son of this king and queen, meaning the soul of Vajrajangh became the king and Shrimati’s soul became his son.
Perhaps King Shridhar, after taking the Digambari initiation, died and became Achyutendra, and Kesav also attained the position of Pratinidhi by taking the Nirgrantha initiation and became Achyut in heaven. That Achyutendra, in Pundarikini Nagar of Pushkalavati Desh in Videha, was born as the son of Vajrasen Raja and Shrikanta Rani, named Vajranabhi. Vajranabhi’s father was a Tirthankar, and he himself was a Chakravarti. Understanding the rare nature of the three jewels from his father, Vajradant, he surrendered his kingdom to his son Vajradant, and, feeling detached, took the Jain Diksha in the Samavasaran of the Tirthankar and at some point, contemplating the sixteen Bhavanas of the Tirthankar, he attained the cessation of the Tirthankar nature.
Attaining purity of meditation, they reached the 11th stage of spiritual development and, after completing the moment there, descended below. Perhaps they also ascended to the Upsham Shruti and became Ahimsa in the realm of Sarvarthasiddhi after the end of their lives.
Garbhaavatar
Six months before the birth of the Lord, under the command of Indra, Kubera showered seven and a half crore gems in the queen’s courtyard. One night, Queen Marudevi dreamt of sixteen auspicious symbols, including Airavat elephant, Shubhra bull, golden vessels consecrated by elephants, and a garland of flowers.
She was extremely delighted upon hearing the interpretation of the dream from her husband in the morning. At that time, during the third period of the Asarpini Kaal, after eighty-three lakh and three years, eight months, and one fortnight, on the day of Ashadha Krishna Dwitiya, when the Uttarashadha Nakshatra ended, Vajranabhi left the realm of the gods and descended into Marudevi’s womb from the Sarvarthasiddhi Vimana upon the completion of his divine lifespan.
At that time, Indra celebrated the auspicious occasion of Garbhakalyan. Under Indra’s command, goddesses like Sri and others, along with celestial beings, engaged in poetic recitations, philosophical discussions, and subtle inquiries to delight the mind of the queen.
Birth Celebration
After nine months had passed, Mata Marudevi gave birth to the Lord on the Chaitra Krishna Navami day at sunrise, along with an interval of Mati-Shruti-Avadhi, encompassing these three types of knowledge. A wave of joy ran through the entire universe.
As the thrones of the gods trembled, flowers rained down from the wish-fulfilling trees, and the sound of celestial bells, conch shells, and other instruments echoed from the abodes of the Chaturmukha Devas, it was understood that the Lord was born. Thinking thus, Indra, accompanied by Indrani, rode on Airavat elephant and circumambulated the city, taking the Lord to Mount Meru, where the Lord’s birth was consecrated with the water of the Kshirasamudra from 1008 kalashas.
Subsequently, adorned with divine garments, the name ‘Rishabhdev’ was bestowed upon Him. Indra returned to Ayodhya and departed after performing praises, worship, and Tandava dance, leaving the Lord in His abode.
Wedding Celebration
Upon entering His youth, Maharaja Nabhiraj obtained the Lord’s consent with great reverence and, with Indra’s permission, solemnized the marriage of Lord Rishabhdev with Princess Yashasvati and Sunanda.
Birth of Bharat Chakravarti
Yashasvati Devi gave birth to Bharat Chakravarti on the Chaitra Krishna Navami day, and subsequently, Ninynave sons and Brahmi daughters were born. Sunanda Mahadevi gave birth to the divine Kamadeva, Bahubali, and Sundari.
Thus, with a hundred and three sons, along with daughters, experiencing the enjoyments brought by the gods, Lord Rishabhdev passed His life as a householder.
Education of Sons and Daughters
Lord Rishabhdev, being omniscient from the womb, was His own guru. At one time, taking Brahmi Sundari on His lap, He blessed her and, with the goddess of learning in mind, established her on a golden slate, writing the alphabet from ‘A’ to ‘A’ with His right hand and teaching Brahmi Kumari the script, and instructing Sundari in numerical knowledge like units and tens, etc. Similarly, the Lord also instructed all His sons, including Bharat and Bahubali, in various disciplines.
Teaching of the Six Activities
When due to the influence of time, the potency of wish-fulfilling trees diminished, and grains became scarce without cultivation, the distressed subjects approached Maharaja Nabhiraj. Later, at Nabhiraj’s command, the subjects approached Lord Rishabhdev, praying for protection. Upon hearing the plight of the subjects, Lord Rishabhdev contemplated in His mind that the societal structure existing in Vedic Videha should be instituted here to sustain life.
Just as there are six activities like plowing, grinding, etc., and the varna system of Kshatriya and others, the creation of villages and cities should also be done here. Subsequently, remembering Indra, and with Indra’s remembrance alone, Indra came and, between Ayodhyapuri, constructed Jain temples and erected Jain temples in all four directions.
Creating countries, cities like Kausala, Anga, Banga, etc., and settling the subjects, Indra left for heaven at the Lord’s command. The Lord taught the subjects the six activities of plowing, grinding, trade, craft, and sculpture.
At that time, the Lord was detached. He established the varnas of Kshatriyas, Vaishyas, and Shudras and suggested many means of livelihood free from sin. That’s why the Lord was called the Yuga Purusha, Adi Brahma, Vishwakarma, Creator, Krityug Vidhata, and Prajapati. At that time, Indra anointed the Lord on the imperial throne.
Renunciation and Asceticism
Once, while watching Neelanjana’s dance in the assembly, the Lord felt detachment upon the end of her performance due to her age. Performing Bharat’s coronation, He renamed the Earth as ‘Bharat’ and appointed Bahubali as the Yuvaraja.
After consulting Maharaja Nabhiraj and others, the palanquin named ‘Sudarshana’ brought by Indra was mounted, and the Lord reached the Siddharthaka forest. Sitting under a banyan tree, uttering the ‘Namah Siddhebhyah’ mantra, plucking the five tufts of hair, He became a monk devoid of all possessions. The place where Indra had worshiped became famous as ‘Prayag’ or where the Lord had renounced his illustrious body, it was named Prayag. At that time, the Lord took a six-month vow, and four thousand kings who accompanied Him also adopted the naked pose out of devotion.
Origin of Hypocrisy
The kings who were initiated along with the Lord started consuming fruits from the forest with their own hands, suffering from hunger and thirst within two to three months. Seeing this, the deities of the forest warned them that the Digambara attire is appropriate for supreme beings like Arhats and Chakravartis, and not for indulging in such unworthy activities. Despite this advice, these individuals became corrupt and took on various forms of hypocritical ascetics, wearing woolen garments, carrying staffs, and matted hair, and thus became wandering ascetics. Marichi Kumar, the grandson of Lord Rishabhdev, became the leading Guru among them, eventually becoming the final Tirthankar Mahavir.
Acceptance of Food
Lord Rishabhdev left for alms after six months, but due to ignorance about the procedure, seven months and nine days passed without eating. Therefore, after one year and forty-one days, the Lord reached the city of Hastinapura in the Kurujangala region. Upon seeing the Lord’s arrival, King Shreyams and Prince Shreyans Kumar, remembering their past lives, offered the Lord sugarcane juice as food with proper rituals. This day was the third day of the bright fortnight of Vaishakh, which is still known as “Akshaya Tritiya”.
Attainment of Foreknowledge
After a thousand years of penance, omniscience manifested for the Lord under a banyan tree in the garden of Purvatalpur during the Falguni Ekadashi. By the command of Indra, Kubera constructed a twelve-yojana Samavasaran. In the Samavasaran, twelve assemblies were organized sequentially:
- Ganadhara Devas and Munis with Sapta Ridhi.
- Kalpavasis Devis.
- Aryikas and Shravikas.
- Bhavanavasi Devis.
- Vyantrar Devis.
- Jyotishka Devis.
- Bhavanavasi Devas.
- Vyantrar Devas.
- Jyotishka Devas.
- Kalpavasis Devas.
- Humans.
- Animals and other beings.
King Rishabhdev of the city of Purimatla became the first Ganadhara of Lord Rishabhdev. Brahmi also took Aryika initiation and became the chief Ganini among the Aryikas.
In the Lord’s Samavasaran, 84 Ganadharas, 84000 Munis, 350000 Aryikas, 300000 Shravaks, 500000 Shravikas, countless Devas and Devis, and numerous animals listened to the teachings.
Nirvana of Tirthankar Adinath/Rishabhdev
When only thirteen days of the Lord’s lifespan remained, He went to Mount Kailash and, at the time of sunrise on the fourteenth day of the dark fortnight of Magha, facing the eastern direction, along with many munis, destroyed all his karmas and entered Siddha Loka simultaneously.
At that moment, the Devas came and celebrated the auspicious occasion of the Lord’s Nirvana. May such Rishabhdev Jineshwar always protect us. After the Lord’s liberation, three years, eight months, and one fortnight pass before entering the fourth stage.
Entering the fourth stage after three stages is due to the influence of the Hundavasarpini’s defect, as the first Tirthankar takes birth in the third stage and attains liberation in the fourth stage. In the Mahapurana, Lord Rishabhdev is also known as ‘Dashavatar’.
- Mahabal, the king of Vidhyadharas.
- Lalitang Dev.
- King Vajrajangh.
- Bhogbhoomi Arya.
- Shridhar Dev.
- King Suvidhi.
- Achyutendra.
- Chakravarti Vajranabhi.
- Sarvarthasiddhi’s Ahaminendra.
- Lord Rishabhdev.
These Lords are also known as Rishabhdev, Vrishabhdev, Adinath, Purudev, and Adi Brahma.
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