लय- लावनी- नर होनहार होतव्य न तिल भर टरती……
जिन पुष्पदन्त भगवन्त, अन्त किया भव का।
हे सुविधिनाथ अब अन्त करो, मम भव का॥
हम   पाप   नाशने, तेरे   दर   पर  आये।
शाश्वत सुख  दीजे, द्रव्य  सजा  कर  लाये॥
ओं ह्रीं तीर्थंकरपुष्पदंतजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम् ।

जल पान किया पर तृषा सदा दुख देती ।
जिनवर की पूजा सभी दुःख हर लेती ॥
इस हेतु सुविधि पूजन में जल ले आये।
जन्मों की तृषा मिटाने, भाव जगाये ॥
ओं ह्रीं श्री पुष्पदंतजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

चन्दन का तन पर लेप किया अतिभारी।
पर मन का नहिं सन्ताप मिटा दुखकारी ॥
इस हेतु सुविधि पूजन में चन्दन लाये।
संसार ताप मेटन को भाव जगाये ॥
ओं ह्रीं श्री पुष्पदंतजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।

इन्द्रिय सुख को ही सुख माना दुख पाया ।
तृष्णा ने मन आतम को दुखी बनाया ॥
इस हेतु सुविधि पूजन को अक्षत लाये।
अक्षय सुख पाने शरण तुम्हारी आये ॥
ओं ह्रीं श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।

नासा मन की संतुष्टि हेतु सुम सुँघे ।
कामाग्नि जगी जिससे संयम व्रत छूटे
इस हेतु सुविधि पूजन में सु मन लगाऊँ ।
व्रत बह्मचर्य पाने को कुसुम चढ़ाऊँ ॥
ओं ह्रीं श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

इस क्षुधा रोग के दुःख सदा से सहते ।
दुर्गतियों में बिन अन्न पान के रहते ॥
हे पुष्पदन्त जिन! क्षुधा मिटाओ मेरी ।
कर में शुचि चरुवर लाये शुद्ध नवेरी ॥
ओं ह्रीं श्री पुष्पदंतजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

अज्ञान अँधेरा छाया था शिव मग में।
सुज्ञान उजाला किया सुविधि ने जग में॥
श्रुत ज्ञान प्राप्ति को दीप रखूँ प्रभु पग में।
जानूँ चेतन हूँ तन से सदा अलग मैं॥
ओं ह्रीं श्री पुष्पदंतजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

प्रभु ने कर्मों को ईंधन प्रथम बनाया।
फिर ध्यान अग्नि में उसको पूर्ण जलाया॥
मैं भी कर्मों की धूप बनाऊँ स्वामी।
आतम गुण सुरभित होवें जग में नामी॥
ओं ह्रीं श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीतिस्वाहा ।

प्रभु पुण्य पाप से ऊपर पूर्ण उठे हो।
फिर सुख दुख के वेदन से पूर्ण परे हो॥
प्रभु तुम सम बाधा रहित पूर्ण सुख पाऊँ।
इस हेतु आपके पद में सुफल चढ़ाऊँ॥
ओं ह्रीं श्री पुष्पदंतजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

इस जग के मूल्य पदार्थ द्रव्य में लाया।
मिल जाय अर्ध से शिव अनर्घ मन भाया॥
हे पुष्पदन्त जिनराज आश हो पूरी।
झट नाप सकूँ मैं, मोक्ष महल की दूरी॥
ओं ह्रीं श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

पंचकल्याणक अर्घ
सखी छन्द
नवमी तिथि फाल्गुन काली, गरभागम प्रतिभाशाली।
तज आरण स्वर्ग विमाना, रामा के गर्भ सुहाना॥
रत्नों की वृष्टि हुई थी, आनन्दित सृष्टि हुई थी।
काकन्दीपुर हरषाता, सुग्रीव पिता गुण गाता॥
ओं ह्रीं फाल्गुनकृष्णानवम्यां गर्भकल्याणमण्डित श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्राय अर्घं ।

मगसिर सित शुक्ला परमा, दश अतिशय युत सुत जन्मा ।
चारों निकाय सुर आये, सुरगिरि पर न्हवन कराये ॥
ओं ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लप्रतिपदायां जन्मकल्याणमण्डितश्रीपुष्पदंतजिनेन्द्राय अर्थं।

सित मगसिर की तिथि परमा, तप धरा सुविधि तन चरमा।
सुरमित्र दिया आहारा, गोक्षीर लिया कर द्वारा॥
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लप्रतिपदायां तपः कल्याणमण्डित श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्राय अर्घं।

कार्तिक सित दोयज आयी, कैवल्य हुआ सुखदायी ।
जब चार घातिया नाशे, प्रभु ने शिव मार्ग प्रकाशे ॥
ओं ह्रीं कार्तिकशुक्लद्वितीयायां ज्ञानकल्याणमण्डित श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्राय अर्घं।

आश्विन सित आठें आयी, शिव रमणी को परिणायी।
सम्मेद  गिरीश  पधारे, श्री  पुष्पदन्त  गुण  धारे॥
ओं ह्रीं आश्विनशुक्लाष्टम्यां मोक्षकल्याणमण्डितश्रीपुष्पदंतजिनेन्द्राय अर्घं।

जयमाला (यशोगान)
दोहा

नब्बे कोटि उदधि गये, चन्दप्रभु शिव बाद।
तब जन्मे प्रभु सुविधि जिन, तत्त्व कथन स्याद्वाद॥

ज्ञानोदय
उल्कापात देख सुविधीश्वर, विचार सागर में खोते।
यह उल्का नहिं मोह तिमिर को, हरने दीपा उद्योते ॥
उल्कापात निमित्तक प्रभु को, आत्मज्ञान प्रकटित होता ।
राज विभव तजने को निज में, दृढ़ वैराग्य उदित होता ॥
लौकान्तिक सुर आये दिवि से, तप का अनुमोदन करने।
बैठ पालकी सूर्यप्रभा पर, पुष्पक वन दीक्षा धरने ॥
बेला के उपवास सहित प्रभु, सहस्त्र नृप सह तप धारें।
मन्दरपुर के पुष्पमित्र गृह, ले आहार भव्य तारें ॥
चार वर्ष तक तप कर प्रभु में, केवलज्ञान प्रकट होता ।
जिनवर का उपदेश जगत की, पाप मलिनता को धोता ॥
विदर्भ आदि अट्ठासी गणधर, सब मुनिवर दो लाख रहे ।
घोषादिक आर्या त्रिलाख सह, अस्सी हजार शास्त्र कहे ॥
आर्य देश में विहार करके, भव्यों का उद्धार किया।
फिर सम्मेद शिखर के ऊपर, जाकर शिव उपहार लिया ॥
मोक्ष महा कल्याण मनाकर, इन्द्रादिक सुरलोक गये।
हम मृदु भक्त यहाँ से पूजें, हमको दो शिवलोक अये! ॥
ओं ह्रीं श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये पूर्णार्थं निर्वपामीति स्वाहा।

मकर चरण में शोभता, पुष्पदन्त पहचान ।
विद्यासागर सूरि से, मृदुमति पाती ज्ञान ॥
॥ इति शुभम् भूयात् ॥

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Note

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