विद्यार्चना छंद -लय- गुरु विद्यासागर के चरणों में..
विदिशा नगरी भद्दलपुर में, आरण दिवि से अवतार लिया।
श्रीमात सुनन्दा पितु दृढ़रथ ने, जिन्हें हृदय से प्यार किया|
ऐसे हे शीतलनाथ प्रभो!, तुम दश धर्मों से पार हुये ।
हम भी दुखसागर पार करें, इस हेतु करें अवतार हिये ॥
ओं ह्रीं तीर्थंकरशीतलनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ द ठः स्थापनम्। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम् ।
मैं क्रोध अनल में जला प्रभो!, नहिं पाया नीर क्षमा नामी ।
क्रोधाग्नि शमन को तव पद में, जल चढ़ा रहा शिवपथगामी ॥
हे शीतलनाथ दशम तीर्थंकर!, दुख मेटो अन्तर्यामी ।
गुरु शान्तिसिन्धु सम ज्ञानसिन्धु सम, समाधि मरण करूँ स्वामी ॥
ओं ह्रीं श्री शीतलनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मैं मान अग्नि से तप्त हुआ, नहिं मार्दव गुण शीतल जाना।
अब शीतलता पाने शीतल जिन, चढ़ा रहा चन्दन नाना ॥
ओं ह्रीं श्री शीतलनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
मैं कपट जाल में फँसा प्रभो, नहिं सरल मार्ग को पहचाना।
चारों गतियों से शीघ्र निकलने, चढ़ा रहा अक्षत वाना ॥
ओं ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
मैं लोभ पंक में फँसा प्रभो, सन्तोष धर्म को नहिं जाना।
अब शौच धर्म अपनाने भगवन्, मन अर्पित है मनमाना ॥
ओं ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
सच के बिन चेतन को चेतन, तन को तन रूप नहीं जाना ।
अब वस्तु स्वरूप जानने प्रभु, चरु अर्पण को अनशन माना ॥
ओं ह्रीं श्री शीतलनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा।
षट्काय जीव हिंसा न तजी, नहिं मन इन्द्रिय वश कर पाये ।
अब संयम भाव जगाने भगवन्, रत्न दीप कर में लाये ॥
ओं ह्रीं श्री शीतलनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
नासा वश धूप जलायी है, इच्छा निरोध तप ना जाना ।
पर आज कर्म दहने को भगवन्, धूप प्रयोजन पहचाना ॥
ओं ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीतिस्वाहा ।
संसार देह से विरत बनूँ, प्रभु त्याग करूँ मैं भोगों का ।
निजीर्ण कर्म के फल होवें, शुभ फल अर्पित उपयोगों का ॥
ओं ह्रीं श्री शीतलनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
पर द्रव्यों में मैं मेरापन, सब त्याग अकिंचन हो जाऊँ ।
अब आत्म ब्रह्म में रमने भगवन्, अर्घ हाथ ले हरषाऊँ ॥
ओं ह्रीं श्री शीतलनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक अर्घ
क्षमासखी छन्द
अलि चैत्र अष्टमी प्यारी, गरभागम मंगलकारी।
लख पूर्व आयु प्रभु पायी, नब्बे धनुषी ऊँचाई॥
ओं ह्रीं चैत्रकृष्णाष्टम्यां गर्भकल्याणमण्डित श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्धं।
माघी कृष्णा द्वादशी को जन्मे शीतल मन वशि को।
अन्तिम नर जन्म सुहाया, हरि सुरगिरि न्हवन कराया॥
ओं ह्रीं माघकृष्णद्वादश्यां जन्मकल्याणमण्डित श्रीशीतलनाथजनेन्द्राय अर्धं।
हिम नाश देख वैरागी, दीक्षा की किस्मत जागी।
तिथि जन्म दिवस की प्यारी, शुक्रप्रभा पालकी न्यारी॥
नृप सहस्त्र दीक्षा साथी, त्यागे सब रथ हय हाथी।
थे भूप पुनर्वसु दाता, अनशन द्वय किये विधाता॥
ओं ह्रीं माघकृष्णद्वादश्यां तपः कल्याणमण्डित श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घं।
छद्मस्थ वर्ष त्रय बीते, चारों विधि घाती रीते।
पौषी कृष्णा चउदस को, कैवल्य हुआ जग वश हो॥
ओं ह्रीं पौषकृष्णचतुर्दश्यां ज्ञानकल्याणमण्डितश्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्ध।
आश्विन सित आठें आयी, तब मोक्ष रमा परिणायी।
सम्मेदाचल यश पाया, सुर नर मुनि॥
ओं ह्रीं आश्विनशुक्लाष्टम्यां मोक्षकल्याणमण्डित श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घं।
जयमाला (यशोगान)
दोहा
नव करोड़ सागर गये, पुष्पदन्त शिव बाद।
पल्य भाग चौथा विरह, फिर है शीतल नाद ॥
समपदी छन्द
मलय देश भद्दलपुर प्यारा, चउ कल्याणक अतिशय न्यारा।
जन्मे शीतलनाथ हमारे, हैं इक्ष्वाकु वंश उजियारे॥
जन्म पूर्व रत्नों की वर्षा, पन्द्रह मास हुई जग हर्षा।
सोलहकारण भावन भाते, तब तीर्थंकर का पद पाते॥
दुख का कारण मोह लखा है, विरक्त होते मोक्ष दिखा है।
हजार नृप सह दीक्षा लेते, बोध प्राप्त कर शिक्षा देते॥
इक्यासी ऋषि गणधर प्यारे, अनगारादि नाम गुण धारें।
एक लाख सब मुनि संख्या थी, धारणादि आर्या मुख्या थी॥
अस्सी सहस्र तीन लख आर्या, दो लख श्रावक त्रय लख नार्या।
इक सहस्र मुनि मोक्ष पधारे, शीतल जिन सह मृदुल सहारे॥
ओं ह्रीं श्री शीतलनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
दो हजार चौदह रहा, गुरुवर वर्षायोग|
तव शीतल प्रभु चरण में दीक्षित चउ मुनियोग॥
शीतल शाश्वत समरस, श्रमण सिन्धु मुनि नाम।
विद्यासागर सूरि कृपा, विदिशा शीतल धाम॥
शान्तिसागराचार्य की, त्रेसठवीं सुसमाधि।
चरित शुद्धि व्रत मृदु गहे, शीतल जिन हर व्याधि॥
कल्पवृक्ष पद शोभता, शीतल जिन पहचान।
विद्यासागर सूरि की, आज्ञा मृदुमति मान॥
॥ इति शुभम् भूयात् ॥
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