ज्ञानोदय
महासेन सुत! अष्टम जिनवर, वीतराग तीर्थंकर हो।
माँ सुलक्षणा लाल चन्द्रप्रभ! करुणाकर क्षेमंकर हो॥
शत इन्द्रों से वंदित प्रभुवर, समवसरण में राजित हो।
द्वादश गण नक्षत्र मध्य में, चन्द्र समान विराजित हो॥
चन्द्रप्रभा सम कान्तिमान् हो, जग में अतिशय सुन्दर हो।
आधि व्याधि से रहित चन्द्रप्रभु, परम स्वास्थ्य के मन्दिर हो॥
चन्द्रोदय में पूर्ण चन्द्र सम, चन्द्रनाथ बनकर आये।
आज हृदय में आओ भगवन्! भक्त कुमुद मृदु खिल जाये॥
ओं ह्रीं अतिशययुक्त अष्टमतीर्थंकर श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम् ।
अशोक तरु जिन समीपता से, शोक रहित हो जाता है।
लाल लाल पल्लव दल द्वारा, प्रभु अनुराग जताता है ॥
जिनेन्द्र चन्द्रोदय दर्शन से, भक्त समुद्र उमड़ता है।
प्रभु पद में शुचि जल अर्पण कर, तजता निज की जड़ता है ॥
ओं ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु के छत्रत्रय कहते हैं, जिन हो तुम त्रिभुवन स्वामी ।
जो प्रभु की छाया में आते, वे बन जाते जग नामी ॥
चन्द्रोदय सम चन्द्रनाथ की, वीतराग छवि प्यारी है।
शीतलता पाने जिन पद में लाये चन्दन प्याली हैं ॥
ओं ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण में त्रिपीठ ऊपर, सिंहासन पर राजित हो ।
द्वादश भवि गण ताराओं में, शशि सम आप विराजित हो ।
चेतन चन्द्रोदय का अमृत, पाने हम सब आये हैं।
अखण्ड सुख के प्रतीक अक्षत, हे जिन! कर में लाये हैं ॥
ओं ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्प वृष्टि से लगता नभ से, तारायें ही उतरी हों ।
चन्द्रनाथ प्रभु के चरणों में, पूजा करने बिखरी हों ॥
जिनवर चन्द्र किरण से जग में, शत्रु मित्र बन विकसित हों।
रवि से खिलते लाल कमल भी, श्वेत कमल सम विहँसित हों ॥
ओं ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
वीतराग सर्वज्ञ! आपके, वचनामृत का पान करूँ।
क्षुधा तृषा की बाधाओं का, पूर्ण तरह अवसान करूँ ॥
पूर्ण चन्द्रमय चन्द्र वदन से, अमृत सदा बरसता है।
चरु अर्पित कर सुधा पान को, सबका हृदय तरसता है ॥
ओं ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु की शुचि लेश्या ही निकली, बाहर भामण्डल भाती।
भव्यजीव के सात भवों की, त्रिकाल छवियाँ दर्शाती ॥
शशि सम शीतल चन्द्र चरण में, चारित्र पाने आये हैं ।
दर्पण सम जीवन उज्ज्वल हो, घृत का दीपक लाये हैं ॥
ओं ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
हंसों जैसे धवल चमर जब आप गौर तन पर दुरते ।
चमर चन्द्रप्रभ की आभा में, खुद को खोते मन हरते ॥
चन्द्रोदय की चन्द्रप्रभा से भक्त चमत्कृत हो जाते।
धूप अर्प कर प्रभु समान ही, दिग्दिगन्त तक यश पाते ॥
ओं ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
भगवन्! तेरा दुन्दुभि बाजा, जग को सदा जगाता है।
प्रभु के प्रवचन सुनने आओ, कहता जिन यश गाता है ॥
पूर्ण चन्द्रसम चन्द्र जिनेश्वर, मुझे मोक्ष फल पाना है।
इसीलिए जिन ! अचित्त शुचि फल, सविनय तुम्हें चढ़ाना है ।
ओं ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
निर्विकार नेत्रों से जाना, सर्व विकारों को जीता।
हृदय सूचिका जिनवर मुद्रा, ऐसा कहती जिन गीता ॥
प्रसन्नता से प्रभु मुख लगता, सुर गंगा में कमल खिला ।
पूर्ण चन्द्र सम आनन्दकारी, मिले अर्ध से मोक्ष भला ॥
ओं ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्धं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक अर्घ – दोहा
चैत्र कृष्ण की पंचमी, महासेन भूपेन्द्र |
सुलक्षणा के गर्भ में आये चन्द्र जिनेन्द्र ॥
ओं ह्रीं चैत्रकृष्णपंचम्यां गर्भमंगलमण्डित श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घं निर्व. स्वाहा ।
जन्म चन्द्रपुर मेरु पर, इन्द्र करें अभिषेक ।
पौष कृष्ण एकादशी, बाजे बजें अनेक ॥
ओं ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां जन्ममंगलमण्डितश्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घं ।
मुख परिवर्तन देखकर, भव तन नश्वर जान ।
पौष कृष्ण एकादशी, चन्द्रप्रभु तप ठान
ओं ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां तपोमंगलमण्डितश्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्ध ।
दीक्षा वन तरु नाग तल, किया चन्द्रप्रभु ध्यान ।
फाल्गुन कृष्णा सप्तमी, उपजा केवलज्ञान ॥
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णसप्तम्यां केवलज्ञानमंगलमण्डित श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्ध ।
अन्त मास सम्मेदगिरि, पाया पद निर्वाण ।
फाल्गुन शुक्ला सप्तमी, चन्द्र मोक्ष कल्याण ॥
ओं ह्रीं फाल्गुनशुक्लसप्तम्यां मोक्षमंगलमण्डित श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्धं ।
जयमाला (यशोगान)
अतिशयकारी महिमा
तर्ज-भक्ति बेकरार है, आनन्द अपार है……………..।
आनन्द अपार है, तीर्थंकर दरबार है।
अष्टम जिनवर चन्द्रप्रभु की, महिमा अपरम्पार है ॥ ध्रुव ॥
घातिकर्म के क्षय से प्रकटी, महालब्धि नव प्रभु तुममें-2 ।
चौंतिस अतिशय प्रातिहार्य वसु, युक्त चन्द्रप्रभु को प्रणमें-2 ।।1।।
जिनकी अमृत वाणी सुनकर, प्राणी दुख से तिरते हैं-21
सुर नर मुनि जिनके चरणों में, शत शत वन्दन करते हैं – 2 ॥2॥
स्वप्नों में अपना दर्शन दे, चमत्कार दिखलाया है 21
मोह तिमिर में भटके जग को, सच्चा मार्ग दिखाया है -2 ॥3॥
समन्तभद्राचार्य भक्ति से, चन्द्र पिण्डिका से प्रकटे-2 ।
नगर तिजारा के देहरा में, चन्द्रनाथ भू से प्रकटे – 2 ॥4॥
चनाटोरिया में स्वप्नों को, देकर अतिशय दिखलाया
चन्द्रोदय फिर तीर्थ बनाया, चन्द्रप्रभु को पधराया
चारु चरण में चन्द्र चिन्ह है, चन्द्र चन्द्रपुर में जन्मे – 2 |
चन्द्रप्रभा सम चन्द्रवदन लख, नाम चन्द्रप्रभ इन्द्र नमें -2 ॥5॥
चमक रहे हो निज चेतन में, चन्द्र चन्द्र सम शीतल हो – 2 ।
चारु चन्द्रिका फीकी पड़ती, चमके चन्द्र महीतल हो – 2 ॥6॥
आनन्द अपार है, तीर्थंकर दरबार है।
अष्टम जिनवर चन्द्रप्रभ की, महिमा अपरम्पार है।
चन्द्रोदय के चन्द्रप्रभु की, महिमा अपरम्पार है ॥ध्रुव॥
ओं ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
*****
Note