अज अंक अजै पद राजै निशंक, हरे भवशंक निशंकित दाता|
मदमत्त मतंग के माथे गँथे, मतवाले तिन्हें हने ज्यों अरिहाता||
गजनागपुरै लियो जन्म जिन्हौं, रवि के प्रभु नंदन श्रीमति-माता|
सो कुंथु सुकंथुनि के प्रतिपालक, थापौं तिन्हें जुतभक्ति विख्याता|
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्र | अत्र अवतर अवतर संवौषट् |
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्र | अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः |
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्र | अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् |

कुंथु सुन अरज दास केरी, नाथ सुन अरज दासकेरी|
भवसिन्धु पर्यो हौं नाथ, निकारो बांह पकर मेरी||
प्रभु सुन अरज दासकेरी, नाथ सुन अरज दासकेरी|
जगजाल पर्यो हौं वेगि निकारो बांह पकर मेरी |टेक|
सुरसरिता को उज्ज्वल जल भरि, कनकभृंग भेरी |
मिथ्यातृषा निवारन कारन, धरौं धार नेरी ||कुंथु0
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1|

बावन चंदन कदलीनंदन, घसिकर गुन टेरी |
तपत मोह नाशन के कारन, धरौं चरन नेरी ||कुंथु0
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2|

मुक्ताफलसम उज्ज्वल अक्षत, सहित मलय लेरी |
पुंज धरौं तुम चरनन आगे अखय सुपद देरी ||कुंथु0
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3|

कमल केतकी बेला दौना, सुमन सुमनसेरी |
समरशूल निरमूल हेत प्रभु, भेंट करौं तेरी ||कुंथु0
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4|

घेवर बावर मोदन मोदक, मृदु उत्तम पेरी |
ता सों चरन जजौं करुनानिधि, हरो छुधा मेरी ||कुंथु0
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5|

कंचन दीपमई वर दीपक, ललित जोति घेरी |
सो ले चरन जजौं भ्रम तम रवि, निज सुबोध देरी ||कुंथु0
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6|

देवदारु हरि अगर तगर करि चूर अगनि खेरी |
अष्ट करम ततकाल जरे ज्यों, धूम धनंजेरी ||कुंथु0
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7|

लोंग लायची पिस्ता केला, कमरख शुचि लेरी |
मोक्ष महाफल चाखन कारन, जजौं सुकरि ढेरी ||कुंथु0
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8|

जल चंदन तंदुल प्रसून चरु, दीप धूप लेरी |
फलजुत जनन करौं मन सुख धरि, हरो जगत फेरी ||कुंथु0
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9|

पंचकल्याणक
सुसावन की दशमी कलि जान, तज्यो सरवारथसिद्ध विमान|
भयो गरभागम मंगल सार, जजें हम श्री पद अष्ट प्रकार ||
ॐ ह्रीं श्रावणकृष्णादशम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीकुंथु0अर्घ्यं नि0 |1|

महा बैशाख सु एकम शुद्ध, भयो तब जनम तिज्ञान समृद्ध|
कियो हरि मंगल मंदिर शीस, जजें हम अत्र तुम्हें नुतशीश ||
ॐ ह्री वैशाकशुक्लाप्रतिपदायां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीकुंथु0अर्घ्यं नि0 |2|

तज्यो षटखंड विभौ जिनचंद, विमोहित चित्त चितार सुछद|
धरे तप एकम शुद्ध विशाख, सुमग्न भये निज आनंद चाख ||
ॐ ह्री वैशाकशुक्लाप्रतिपदायां तपोमंगलप्राप्ताय श्रीकुंथु0अर्घ्यं नि0 |3|

सुदी तिय चैत सु चेतन शक्त, चहूं अरि छयकरि तादिन व्यक्त|
भई समवसृत भाखि सुधर्म, जजौं पद ज्यों पद पाइय पर्म ||
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लातृतीयायां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीकुंथु0अर्घ्यं नि0 |4|

सुदी वैशाख सु एकम नाम, लियो तिहि द्यौस अभय शिवधाम|
जजे हरि हर्षित मंगल गाय, समर्चतु हौं तुहि मन-वच-काय ||
ॐ ह्री वैशाकशुक्लाप्रतिपदायां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीकुंथु0अर्घ्यं नि0 |5|

जयमाला
षट खंडन के शत्रु राजपद में हने|
धरि दीक्षा षटखंडन पाप तिन्हें दने||
त्यागि सुदरशन चक्र धरम चक्री भये|
करमचक्र चकचूर सिद्ध दिढ़ गढ़ लये |1|

ऐसे कुंथु जिनेश तने पद पद्म को|
गुन अनंत भंडार महा सुख सद्म को||
पूजौं अरघ चढ़ाय पुरणानंद हो|
चिदानंद अभिनंद इन्द्र-गन-वंद हो |2|

जय जय जय जय श्रीकुंथुदेव, तुम ही ब्रह्मा हरि त्रिंबुकेव|
जय बुद्धि विदाँवर विष्णु ईश, जय रमाकांत शिवलोक शीश |3|

जय दया धुरंधर सृष्टिपाल, जय जय जगबंधु सुगनमाल|
सरवारथसिद्धि विमान छार, उपजे गजपुर में गुन अपार |4|

सुरराज कियो गिर न्हौन जाय, आंनद-सहित जुत-भगति भाय|
पुनि पिता सौंपि करमुदितअंग, हरितांडव-निरत कियो अभंग |5|

पुनि स्वर्ग गयो तुम इत दयाल, वय पाय मनोहर प्रजापाल|
षटखंड विभौ भोग्यो समस्त, फिर त्याग जोग धार्यो निरस्त |6|

तब घाति केवल उपाय, उपदेश दियो सब हित जिनाय|
जा के जानत भ्रम-तम विलाय, सम्यक् दर्शन निर्मल लहाय |7|

तुम धन्य देव किरपा-निधान, अज्ञान-क्षमा-तमहरन भान|
जय स्वच्छ गुनाकर शुक्त सुक्त, जयस्वच्छ सुखामृत भुक्तिमुक्त |8|

जय भौभयभंजन कृत्यकृत्य, मैं तुमरो हौं निज भृत्य भृत्य|
प्रभु असरन शरन अधार धार, मम विघ्न-तूलगिरि जारजार |9|

जय कुनय यामिनी सूर सूर, जय मन वाँछित सुख पूर पूर|
मम करमबंध दिढ़ चूर चूर, निजसम आनंद दे भूर भूर |10|

अथवा जब लों शिव लहौं नाहिं, तब लों ये तो नित ही लहाहिं|
भव भव श्रावक-कुल जनमसार, भवभव सतमति सतसंग धार |11|

भव भव निजआम-तत्व ज्ञान, भव-भव तपसंयमशील दान|
भव-भव अनुभव नित चिदानंद, भव-भव तुमआगम हे जिनंद |12|

भव-भव समाधिजुत मरन सार, भव-भव व्रत चाहौं अनागार|
यह मो कों हे करुणा निधान, सब जोग मिले आगम प्रमान |13|

जब लों शिव सम्पति लहौं नाहिं, तबलों मैं इनको लहाँहि|
यह अरज हिये अवधारि नाथ, भवसंकट हरि कीजे सनाथ |14|

जय दीनदयाला, वरगुनमाला, विरदविशाला सुख आला|
मैं पूजौं ध्यावौं शीश नमावौं, देहु अचल पद की चाला |15|
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथ जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा|

कुंथु जिनेसुर पाद पदम जो प्रानी ध्यावें|
अलिसम कर अनुराग, सहज सो निज निधि पावें||
जो बांचे सरधहें, करें अनुमोदन पूजा|
वृन्दावन तिंह पुरुष सदृश, सुखिया नहिं दूजा||
इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)

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