पं. द्यानतराय
अडिल्ल
प्रथम देव अरहंत सुश्रुत सिद्धान्त जू
गुरु निर्ग्रथ महंत मुकतिपुर-पंथ जू ।
तीन रतन जगमाँहिं सु “ये भवि ध्याइये,
तिनकी भक्ति प्रसाद परम पद पाइये ॥
दोहा
पूजों पद अरहंत के, पूजों गुरुपद सार ।
पूजों देवी सरस्वती, नित प्रति अष्ट प्रकार ।।
ॐ ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् ।
ॐ ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र- गुरुसमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।
ॐ ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुसमूह ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
हरिगीतिका छन्द
सुरपति उरग नरनाथ तिन-करि, वन्दनीक सुपदप्रभा,
अति शोभनीक सुवरण उज्ज्वल, देख छवि मोहित सभा।
वर नीर क्षीर-समुद्र घट भरि, अग्र तसु बहु विधि नचूँ,
अरहंत श्रुत सिद्धान्त गुरु निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥
दोहा
मलिन वस्तु हर लेत सब जल स्वभाव मल छीन।
जासों पूजों परमपद देव-शास्त्र-गुरु तीन ।।
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
जे त्रिजग – उदर मँझार प्रानी, तपत अति दुद्धर खरे,।
तिन अहित-हरन सुवचन जिनके, परम शीतलता भरे।।
तसु भ्रमर-लोभित घ्राण पावन, सरस चन्दन घसि सचूँ,।
अरहंत श्रुत सिद्धान्त गुरु निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ॥
चंदन शीतलता करै तपत वस्तु परवीन।
जासों पूजों परमपद, देव-शास्त्र- गुरु तीन।।
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।
यह भव-समुद्र अपार तारण के निमित्त सुविधि ठई ।
अति- दृढ़ परम-पावन जथारथ, भक्ति वर नौका सही ॥
उज्ज्वल अखंडित सालि तंदुल, पुंज धरि त्रयगुण जचूँ
अरहंत श्रुत-सिद्धान्त गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥
तन्दुल सालि सुगंध अति, परम अखंडित बीन ।
जासों पूजों परमपद देव-शास्त्र-गुरु तीन ॥
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्योऽक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
जे विनयवंत सुभव्य-उर-अंबुज प्रकाशन भान हैं ।
जे एक मुख चारित्र भाषत, त्रिजग माँहिं प्रधान हैं ॥
लहि कुन्द-कमलादिक पहुप, भव-भव कुवेदन सों बचूँ ।
अरहंत श्रुत-सिद्धान्त गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥
विविधभाँति परिमल सुमन, भ्रमर जास आधीन ।
जासों पूजों परमपद देव- शास्त्र – गुरु तीन ।।
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पाणि निर्वपामीति स्वाहा ।
अति सबल मद – कंदर्प जाको, क्षुधा – उरग अमान हैं।
दुस्सह भयानक तासु नाशन को सुगरुड़ समान हैं॥
उत्तम छहों रस-युक्त नित, नैवेद्य करि घृत में पचूँ।
अरहंत श्रुत-सिद्धान्त गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ॥
नानाविधि संयुक्तरस, व्यंजन सरस नवीन।
जासों पूजों परमपद देव – शास्त्र – गुरु तीन।।
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
जे त्रिजग- उद्यम नाश कीने, मोह-तिमिर महाबली।
तिहि कर्मघाती ज्ञानदीप- प्रकाशजोति प्रभावली॥
इह भाँति दीप प्रजाल कंचन, के सुभाजन में खचूँ।
अरहंत श्रुत-सिद्धान्त गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ॥
स्वपरप्रकाशक ज्योति अति, दीपक तमकरि हीन।
जासों पूजों परमपद देव – शास्त्र गुरु तीन ||
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा
जो कर्म-ईंधन दहन अग्नि-समूह सम उद्धत लसै।
वर धूप तासु सुगंधिताकरि, सकल परिमलता हँसे।।
इह भाँति धूप चढ़ाय नित भव-ज्वलन माँहिं नहीं पचूँ।
अरहंत श्रुत-सिद्धान्त गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ॥
अग्निमाँहिं परिमल दहन, चंदनादि गुणलीन।
जासों पूजों परमपद देव-शास्त्र-गुरु तीन।।
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्योऽष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
लोचन सुरसना घ्राण उर, उत्साह के करतार हैं।
मोपै न उपमा जाय वरणी, सकल फल गुणसार हैं।।
सो फल चढ़ावत अर्थपूरन, परम अमृतरस सचूँ।
अरहंत श्रुत-सिद्धान्त गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ।।
रे प्रधान फलफल-विषै, पंचकरण रस-लीन।
जासों पूजों परमपद देव-शास्त्र- गुरु तीन ।।
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
जल परम उज्ज्वल गन्ध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरूँ ।
वर धूप निर्मल फल विविध बहु जनम के पातक हरु ।।
इह भाँति अर्घ चढ़ाय नित भवि करत शिवपंकति मचूँ ।
अरहंत श्रुत सिद्धान्त गुरु निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥
(आठों दुखदानी, आठ निशानी, तुम ढिग आनी निवारन हो,
दीनन निस्तारन अधम उधारन ‘द्यानत’ तारन कारन हो ।
प्रभु अन्तरजामी, त्रिभुवननामी, सब के स्वामी दोष हरो,
यह अरज सुनीजै ढील न कीजै, न्याय करीजै, दया करो II)
वसुविधि अर्घ संजोय कै, अति उछाह मन कीन ।
जासों पूजों परमपद, देव-शास्त्र-गुरु तीन ।।
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्योऽनर्घपदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
दोहा
देव-शास्त्र- गुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार ।
भिन्न भिन्न कहुँ आरती अल्प सुगुण विस्तार ॥
पद्धरि देव का स्वरूप
“चउ-कर्म कि त्रेसठ प्रकृति नाशि, जीते अष्टादश दोषराशि ।
जे परम सुगुण हैं अनंतधीर, कहवत के छ्यालिस गुणगंभीर ||१||
शुभ समवसरण शोभा अपार, शत-इन्द्र नमत कर सीस धार ।
देवाधिदेव अरहन्त देव, वन्दों मन-वच-तन कर सु-सेव ॥२॥
शास्त्र का स्वरूप
जिनकी धुनि है ओंकाररूप, निरअक्षरमय महिमा अनूप
दशअष्ट महाभाषा समेत लघु भाषा सात शतक सुचेत ||३||
सो स्याद्वादमय सप्तभंग, गणधर गूँथे बारह सुअंग ।
रवि शशि न हरै सो तम हराय, सो शास्ख नमो बहु प्रीति ल्याय ॥४ ॥
गुरु का स्वरूप
गुरु आचारज उवझाय साध, तन नगन रत्नत्रयनिधि अगाध ।
संसार देह वैराग्य-धार, निरवांछि तपैं शिव-पद निहार ॥५॥
गुण छत्तिस पच्चिस आठबीस, भव तारनतरन जिहाज ईश ।
गुरु की महिमा वरनी न जाय, गुरुनाम जपो मन-वचन-काय || ६ ||
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्योऽनर्थपदप्राप्तये महार्थं निर्वपामीति स्वाहा।
सोरठा
कीजे शक्ति प्रमान, शक्ति बिना सरधा धरै
‘द्यानत’ सरधावान, अजर-अमरपद भोगवे ||७||
इत्याशीर्वादः
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Note